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________________ * पारिभाषिक शब्द - कोष * ४२९ गाढ़ हों, तो महास्रव वाला जीव महाकर्म हो जाता है, वह महापीड़ा व महावेदना वाला होता है। इसके विपरीत जो कर्म, अप्रबल क्रिया, अल्प एवं अगाढ़ आनव एवं शिथिलतर पीड़ा (वेदना) वाले, अल्पस्थितिक, अप्रचुर एवं अगाढ़ हों तो अल्पकर्म होता है। उत्तरकर्मप्रकृतियाँ-मूलकर्मप्रकृतियों की सहायक उनकी सजातीय कर्मप्रकृतियाँ उत्तरकर्मप्रकृतियाँ कहलाती हैं। आठों ही कर्मों की कुल उत्तरप्रकृतियाँ १४८ हैं । ज्ञानावरणीय की ५, दर्शनावरणीय की ९. वेदनीय की २, मोहनीयकर्म की मुख्य दो, तथा उनकी अवान्तर प्रकृतियाँ ३ + २५ = २८, आयुकर्म की ४, नामकर्म की ९३ या १०३, गोत्रकर्म की २ और अन्तरायकर्म की ५; यों कुल उत्तरप्रकृतियाँ १४८ या १५८ होती हैं। कर्मबन्ध - आत्मा और कर्म का स्वभाव भिन्न-भिन्न होने पर भी राग-द्वेषादिवश परस्पर दूध-पानी की तरह दोनों का संश्लिष्ट हो जाना कर्मबन्ध है । यह भी दो प्रकार का है - द्रव्यकर्मबन्ध और भावकर्मबन्ध । कर्मबन्ध के चार प्रकार–प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध । कर्मबन्ध के चार स्तर-कर्मबन्ध के शिथिलतर, शिथिल, गाढ़ और गाढ़तर के क्रम से चार प्रकार हैं- स्पृष्ट, बद्ध, निधत्त और निकाचित। क्रियमाण, संचित, प्रारब्ध कर्म : बध्यमान, सत्ता-स्थित, उदयागत-राग-द्वेष या कषाय से प्रेरित होकर वर्तमान में किये गये या बँधने वाले कर्म जैनदृष्टि से बध्यमान और वैदिकदृष्टि से क्रियमाण कहलाते हैं । तथा किसी प्राणी के द्वारा जन्म-जन्मान्तर से ले कर इस क्षण तक किये हुए वे कर्म, जिनको बँधने के बाद तुरन्त या अब तक उदय में आ कर फल नहीं भोगा गया है, वे स्टॉक में जमा पड़े हैं, उन्हें जैनदृष्टि से सत्ता - स्थित और वैदिकदृष्टि से संचित कर्म कहते हैं। जिन संचित कर्मों का फल मिलना अमुक समय के बाद प्रारम्भ हो गया है, उन्हें वैदिकदृष्टि से प्रारब्ध कर्म कहते हैं, जैनदृष्टि से वे जन्म-जन्मान्तर से सत्ता में पड़े हुए कर्म अमुक समय के बाद उदय में आ कर जब फल देना (भुगताना) प्रारम्भ कर देते हैं, तब वे उदयागत कर्म कहलाते हैं। अतः त्रिविध कालकृत कर्मों से छुटकारा पाये बिना मोक्ष नहीं होता । कर्मपुद्गल-जीव के राग-द्वेषादि परिणामों के द्वारा आकर्षित होकर श्लिष्ट होने वाले कर्मवर्गणा या कार्मणवर्गणा के चतुःस्पर्शी पुद्गल कर्मपुद्गल हैं। कर्मवर्गणा-नोकर्मवर्गणा - समान गुणयुक्त सूक्ष्म, अविच्छेद, अविभागी समूह को वर्गणा कहते हैं। कर्म-सम्बन्धी ग्रन्थों में ऐसी कुल २३ वर्गणाएँ बताई गई हैं। उनमें से कार्मणवर्गणा, भाषावर्गणा, मनोवर्गणा और तेजस्वर्गणा; ये चार प्रकार की वर्गणाएँ धर्मवर्गणाएँ हैं। शेष १९ प्रकार की वर्गणाएँ नोकर्मवर्गणाएँ हैं। अथवा कर्मरूप में परिणत होने वाला कर्मसमूह कर्मवर्गणा है। या अष्टविध कर्मस्कन्धों की भेदभूत वर्गणा कर्मवर्गणा है। कर्मपरमाणु-कर्मरूप में परिणत होने वाले पुद्गल - परमाणु, जिनका विभाग न हो के, वे कर्मपरमाणु हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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