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________________ * पारिभाषिक शब्द-कोष * ४२७ * पुण्यकर्म-पापकर्म-शुभ कर्म-अशुभ कर्म-मन, वचन और काया के द्वारा होने वाली शुभ प्रवृत्ति (योग) पुण्य है और अशुभ प्रवृत्ति पाप है। प्राणी के शुभ अध्यवसाय से पात्रानुसार अन्नादि प्रदान करने से नौ प्रकार के पुण्य निष्पन्न (अर्जित) होते हैं। तथैव अशुभ अध्यवसाय से हिंसादि के द्वारा दूसरों के दुःखित-पीड़ित करने से १८ प्रकार के पापकर्म अर्जित होते हैं। इन्हीं को कुशल कर्म, अकुशल कर्म कहा गया है। घातिकर्म-अघातिकर्म-आत्मा के मूल गुणों के घातक (आवारक, विकारक, कुण्ठितकारक) कर्म घातिकर्म और इसके विपरीत स्वभाव वाले कर्म, जो आत्मा के मूल गुणों का घात या ह्रास नहीं करते, अपितु उसके प्रतिजीवी गुणों का कथंचित् ह्रास करते हैं, वे अघातिकर्म कहलाते हैं। घातिकर्म चार हैं-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तरायकर्म। अघातिकर्म भी चार हैं-वेदनीय, आयु, नाम और गोत्रकर्म। जीवकर्म-अजीवकर्म-जो मिथ्यात्व, अविरति और योग अजीव हैं, पौद्गलिक हैं, वे अजीव से सम्बद्ध होने से अजीवकर्म हैं। तथैव जो मिथ्यात्व, अविरति और अज्ञान जीव से सम्बद्ध हैं, वहाँ उपयोगरूप राग-द्वेषादिक जीवकर्म हैं। इन्हीं दोनों को क्रमशः द्रव्यरूप एवं भावरूप होने के कारण द्रव्यकर्म और भावकर्म कहा जा सकता है। ___ बन्धककर्म-अबन्धककर्म-जिसमें किसी क्रिया या प्रवृत्ति के पीछे राग-द्वेष (कपाय) नहीं होता, व्यक्ति केवल उसका ज्ञाता-द्रष्टा वना रहे तो ऐसा शुद्ध कर्म अबन्धक है, आत्मा को बन्धन में नहीं डालता, इसके विपरीत शुभ कर्म और अशुभ कर्म दोनों प्रकार के कर्म बन्धककर्म हैं। मोक्ष-प्राप्ति के लिए ये दोनों प्रकार के कर्म बन्धनकारक अशुद्ध कर्म एवं हेय हैं। बौद्धदर्शन में शुभ को शुक्लकर्म और अशुभ को कृष्णकर्म तथा इन दोनों से ऊपर उठ कर शुद्ध (अशुक्ल-अकृष्ण) कर्म को प्राप्त करने का निर्देश है। यही कर्म के शुभ, अशुभ और शुद्धरूप का मूलाधार है। कृतककर्म-अकृतककर्म-कर्म का बन्धात्मक स्वरूप पृथक् न बताया जाए तो प्रत्येक क्रिया कर्म हो जायेगी। तब तो श्वास-भोजनादि स्वतःसंचालित क्रियाएँ भी कर्म हो जायेंगी, जिनका त्याग शरीरधारी के लिए असम्भव है। अतः कर्मविज्ञों ने कर्म के दो भेद किये हैंकृतककर्म और अकृतककर्म। 'मैं यह करूँ', इत्याकारक-संकल्पपूर्वक किया गया कर्म कृतककर्म है। भगवद्गीता में कृतककर्मों के त्याग का उपदेश है। जबकि पूर्वोक्त प्रकार के संकल्प से निरपेक्ष, जो कर्म स्वतः होता है या ज्ञाता-द्रष्टाभावपूर्वक होता है, वह अकृतककर्म है, उसका त्याग नहीं किया जाता, ऐसे सहजरूप से होने वाला कर्म अकृतककर्म है। भगवद्गीता में इसे सहजकर्म कहकर त्याज्य नहीं बताया गया है। कृतककर्म मुख्यतः तीन प्रकार का है-ज्ञातृत्वरूप, कर्तृत्वरूप और भोक्तृत्वरूप। - सकामकर्म-निष्कामकर्म-सकाम का अर्थ है-काम्य या कामनामूलक कर्म। जिन कर्मों के पीछे कोई न कोई काम यानी स्थूल कामना, वासना, रागभाव, आकांक्षा, इच्छा, लालसा, आसक्ति, तृष्णा आदि या एकमात्र काम-सुखानुभव की स्मृति निहित है, वे सकामकर्म हैं। दूसरे शब्दों में फलाकांक्षायुक्त स्वार्थकृतकर्म सकाम है, और उससे निरपेक्ष परार्थ, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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