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________________ * पारिभाषिक शब्द - कोष * ४२३ * एषणा - (1) भिक्षाचरी के समय आहारविधि के अनुसार भिक्षा ग्रहण करना । (II) अशनादि चतुर्विध आहार को एषण कहते हैं। एषणा-शुद्धि-साधुवर्ग द्वारा उद्गमादि ४२ या ४७ दोषों से रहित आहार, पुस्तक, उपधि या वसति आदि का शोधन करना । एषणा - अभिलाषा या इच्छा। सांसारिक एषणाएँ मुख्यतया तीन हैं - पुत्रैषणा, वित्तैषणा और लोकैषणा । ये कर्मक्षयार्थी साधक के लिए त्याज्य हैं। एषणासमिति - अशनादि चार प्रकार के आहार की भिक्षाचरी के समय गवेषणा और ग्रहणैषणा करना तथा आहार करते समय परिभोगैषणा करना एषणासमिति है । एक क्षेत्रावगाही - बन्ध-प्रायोग्य वस्तुएँ सभी एक क्षेत्रावगाही हो जाती हैं, किन्तु सभी एकक्षेत्रावगाही वस्तुएँ बन्ध को प्राप्त हो जाएँ, यह आवश्यक नहीं । एकेश्वरवाद - जिन धर्म-सम्प्रदायों में एकमात्र एक ही ईश्वर को जगत् का कर्त्ता-धर्त्ता-हर्त्ता माना जाता है, वह एकेश्वरवाद कहलाता है। (ओ) ओघ - (I) सामान्य श्रुत का कथन ओघ कहलाता है । ( II) द्रव्यार्थिकनय के आश्रय से किया गया कथन ओघ कहलाता है। (III) ओघ अर्थात् सामान्य से या अभेद से निरूपण करना ओघ - प्ररूपणा है। ओघसंज्ञा-ज्ञानावरणकर्म के अल्प क्षयोपशम से जो अव्यक्त ज्ञानोपयोगरूप संज्ञा होती है, वह ओघसंज्ञा कहलाती है। ओज - शरीर में शुक्र नामक धातु ओज है। रस से रक्त, रक्त से माँस, माँस से मेदा, मेदा से हड्डी, हड्डी से मज्जा, और मज्जा से शुक्र अमुक परिमित काल के पश्चात् उत्पन्न होता है। यह शुक्र ही एक प्रकार का ओज है । . ओज - आहार - उत्पत्ति-स्थान में प्राप्त हुए जीव के प्रथम द्वितीयादि समय में तैजसूशरीर से जो आहार होता है, वह ओज आहार कहलाता है। ओषधदान - रुग्ण साधकों या सामान्य रोगियों के लिए निःस्वार्थभाव से स्वेच्छा से जो ओषधदान दिया जाता है, वह पुण्य लाभ का कारण है तथा मोक्ष हेतु से निर्जरा का भी कारण सम्भव है। ओम् - परब्रह्म, पंचपरमेष्ठी तथा तीन लोक एवं ऊपर सिद्धशिला का भी वाचक है। तथैव दिगम्बर-परम्परा में भगवन्मुख - निःसृतवचन (ॐ) का सूचक है। तथा वैदिक परम्परा में सर्व-वर्णमाला (मातृकाओं) का मूल व सृष्टिकारणसूचक ओम् शब्द माना जाता है। ॐभी इसी का आकार है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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