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* ४२४ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट *
(औ)
औपचारिक (विनय)-श्रद्धापूर्वक किया गया विशिष्ट क्रियारूप व्यवहार उपचार है, उपचाररूप प्रयोजन से कर्मक्षयार्थ किया जाने वाला विनय।
औदारिक-स्थूल पुद्गलों से बना हुआ शरीर औदारिक है। यह मनुष्यों और तिर्यंचों के होता है। यह औदारिक शरीर-नामकर्म के उदय से होता है।
औत्पातिकी (औत्पत्तिकी) बुद्धि-पढ़े, सुने और पूछे आदि बिना ही सहजभाव से प्रकृष्ट बुद्धि उत्पन्न होना।
औदयिकभाव-कर्म के उदय से उत्पन्न भाव। औद्देशिक-किसी एक या अनेक साधुओं के उद्देश से बनाया गया आहार।
औपक्रमिकी (वेदना)-स्वयं समीप में होना, अथवा उदीरणाकरण के द्वारा समीप में ले आना, इसे उपक्रम कहते हैं। इस उपक्रम से होने वाली वेदना औपक्रमिकी वेदना कहलाती है।
औपशमिकचारित्र-१६ कषाय और ९ नोकषायों (समस्त चारित्र-मोहनीय कर्म) के उपशम से जो चारित्र (यथाख्यात) प्रादुर्भूत होता है, वह औपशमिकचारित्र है।
औपशमिकभाव-(I) आत्मा में कारणवश कर्म की शक्ति का अनुभूत होना-सत्ता में रहते हुए भी उदय-प्राप्त न होना। (II) जिस भाव का प्रयोजन प्रकृत उपशम हो, उसे औपशमिकभाव कहते हैं।
औपशमिक-सम्यक्त्व-दर्शनमोहनीय की तीन और चारित्रमोहनीय की अनन्तानुवन्धी चार, इन ७ प्रकृतियों के उपशमन से होने वाला सम्यक्त्व।
औपाधिक-औपाधिक का यहाँ अर्थ है-आध्यात्मिक अस्वस्थता (असमाधि) उपाधि आत्मा पर मोहादि कर्मों के आवरण के आ जाने से होती है; जो उपाधिजनित हो, वह
औपाधिक है। तात्पर्य यह है कि जो कर्मोपाधिजन्य व्याधि हो, वह औपाधिक कहलाती है। समस्त संसारी जीव कर्मोपाधि से युक्त हैं। संसारी प्राणियों की विविधताएँ, विचित्रताएँ या विसदृशताएँ, विलक्षणताएँ कर्मोपाधिक हैं, स्वाभाविक नहीं। ___ औपपातिक-उपपात से जिनका जन्म हो, ऐसे देव तथा नारक सभी औपपातिक (उपपातज) कहलाते हैं।
कन्दर्प-रागभाव की तीव्रतावश हास्य-मिश्रित असभ्य वचन बोलना कन्दर्प है। श्रावक के आठवें व्रत (तृतीय गुणव्रत) का एक अतिचार।
कन्दर्प देव-कान्दीभावना के कारण कन्दर्पजाति के आभियोगिक देवों में उत्पन्न देव। इस जाति के देवों का गमनागमन अच्युतकल्प-पर्यन्त है।
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