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________________ * ४२२* कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * (१) राजर्षि - विक्रिया और अक्षीण ऋद्धि प्राप्त ऋषि, (२) ब्रह्मर्षि - बुद्धि व औषधि ऋद्धि-प्राप्त ऋषि, (३) देवर्षि - आकाशगमन की ऋद्धि से युक्त, और (४) परमर्षिकेवलज्ञानी । (ए) एकत्व-अनुप्रेक्षा-एकत्वभावना - जीव अकेला ही जन्म लेता है, अकेला ही मरता है, अकेला ही कर्मों का कर्त्ता, भोक्ता है, जन्म-जरा-मरणादि दुःखों का भोक्ता भी अकेला है। पुनःपुनः ऐसा चिन्तन करना । एकत्व-वितर्क-अविचार-शुक्लध्यान का एक भेद । क्षीणकपाय गुणस्थानवर्ती श्रमण के. जो निश्चल शुक्लध्यान होता है, वह एकत्व - वितर्क - अविचार ध्यान है जिसमें एक द्रव्य, एक गुण और एक पर्याय का चिन्तन किया जाता है । एक रात्रिकी भिक्षु-प्रतिमा-गाँव के बाहर श्मशान आदि में एक पुद्गल पर दृष्टि टिका कर कायोत्सर्ग में रात्रिभर स्थित रहना । देव, मनुष्य या तिर्यञ्चकृत कोई भी उपसंर्ग आए, उसे समभाव से सहन करना । एकेन्द्रिय-वह जीव जो एकमात्र स्पर्शेन्द्रिय के द्वारा सुख-दुःख का संवेदन करता है । इन्हें पंचस्थावर भी कहते हैं। एकविध बन्ध- एकमात्र सातावेदनीय प्रकृति के बन्ध को एकविध बन्ध कहते हैं। यह एकमात्र बन्ध ११वें, १२वें, १३वें गुणस्थान में होता है। एकाग्रचिन्तननिरोध-अनेक विषयों के आलम्बन से अवश्य चलायमान होने वाली चिन्ता को एक प्रमुख विषय की चिन्ता में निरुद्ध करना ध्यान का लक्षण है। एकादशी प्रतिमा-प्रतिमाधारी श्रावक की ११ प्रतिमाओं में से अन्तिम प्रतिमा, जिसमें श्रावक साधु की तरह केशलोच या मुण्डन करे, ब्रह्मचर्य से रहे, उद्दिष्ट आहार का त्याग करे, तथा भिक्षा करके आहार करे। एकेन्द्रिय जातिनाम - जिस कर्म के उदय से जीव एकेन्द्रिय कहलाता है, वह हैएकेन्द्रिय जातिनाम | एकान्तवाद - एकान्तमिथ्यात्व - अनेकान्त - निरपेक्ष होकर यह पदार्थ ऐसा ही है, वैसा नहीं' इस प्रकार का एकान्त आग्रह पकड़ना अथवा काल, स्वभाव, नियति, कर्म और पुरुषार्थ, इन पाँच वादों में से एकान्तरूप से एक को ही पकड़ना एकान्तवाद या एकान्तमिथ्यात्व है। एकाशन - एकासन - जिस तप-विशेष में एक बार भोजन करना, अथवा एक ही आसन पर स्थिर होकर आहार करना । एवम्भूतनय - जो द्रव्य जिस प्रकार की क्रिया से परिणत हो, उसका उसी प्रकार से निश्चय कराने वाला अन्तिम नय । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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