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________________ * पारिभाषिक शब्द-कोष * ४२१ * ऊह-ऊहा-(I) अवग्रह से गृहीत पदार्थ का जो विशेष अंश नहीं जाना गया है, उसका विचार करना ऊहा है, यह ईहा मतिज्ञान का ही नामान्तर है। (II) उपलम्भ (अन्वय) और अनुपलम्भ (व्यतिरेक) के निमित्त से होने वाले–'यह (धूम) इसके (अग्नि के) होने पर ही होता है, और उसके न होने पर नहीं होता', इस प्रकार के व्याप्तिज्ञान हो ऊह या ऊहा कहते हैं। ऋणानुबन्ध-वैदिक-परम्परा का पारिभाषिक शब्द। जैन-परम्परानुसार इसे जन्म-जन्मान्तर से परम्परागत पारस्परिक बन्ध कहा जा सकता है। जैसे-गजसुकुमाल मुनि के जीव का, सोमल ब्राह्मण के जीव के साथ ९९ लाख भवों पूर्व बँधा हुआ परम्परागत कर्मबन्ध। . ऋजुमन (ऋजुकमन)-जो पदार्थ जिस रूप में स्थित है, उसका उसी रूप में चिन्तन करने वाला मन ऋजुमन या ऋजुकमन कहलाता है। ऋजुता-सरलता। मायाचार से रहित मन, वचन, काया की सरल प्रवृत्ति ऋजुता है। योगवक्रताविहीनता। ऋजुमति (मनःपर्यायज्ञान का भेद)-दूसरे के मन में स्थित तथा मन-वचन-काय से किये गए अर्थ के ज्ञान से निष्पन्न सरल बुद्धि या बोध को ऋजुमति मनःपर्याय या मनःपर्यवज्ञान कहते हैं। ऋजुसूत्र (नय का एक भेद)-तीनों कालों के पूर्वापर विषयों को छोड़कर जो केवल वर्तमानकालभावी विषय को ग्रहण करता है, वह भी वर्तमान में एक समयमात्र को विषय करता है। क्योंकि ऋजुसूत्रनय की दृष्टि में भूत और भविष्य दोनों ही व्यवहारयोग्य नहीं हैं। अतीत पदार्थ नष्ट हो चुकते हैं, भविष्य पदार्थ अभी अनुत्पन्न हैं। ऋद्धि-भोगोपभोग सम्पदा के साधनों-कारणों को ऋद्धि कहते हैं। ऋद्धिगारव (ऋद्धिगौरव)-नरेन्द्र-देवेन्द्र आदि से पूज्य आचार्य आदि पदों की प्राप्तिरूप ऋद्धि का गर्व (अहंकार) करना। अथवा शिष्य-शिष्या, भक्त-भक्ता, बौद्धिक वैभव, प्रतिभा, प्रवचनपटुता, आडम्बर-बहुलता, प्रसिद्धि आदि का बड़प्पन प्रगट करना भी ऋद्धिगारव है। अथवा ऐसी ऋद्धि की अप्राप्ति के निमित्त से मन में अशुभ भावों (ईर्ष्या, द्वेष, मात्सर्य आदि कुत्सित भावों की गुरुता से होती है, वहाँ ऋद्धिगौरव नामक दोष है, घोर कर्मबन्ध का कारण है वह। ऋतंभरा प्रज्ञा-जो पदार्थ जैसा है, उसे उसी रूप में धारण-ग्रहण कर लेने वाली योगज प्रज्ञा। योगदर्शन-सम्बन्धी पारिभाषिक शब्द। ऋषभनाराच-छह संहननों में दूसरा संहनन। कीलिकारहित संहनन। ऋषि-(I) क्लेशराशि का रेषण = शमन करने वाले मनीषी का नाम ऋषि है। J) चारित्रसार के अनुसार-ऋद्धि-प्राप्त साधुओं को ऋषि कहते हैं। वे चार प्रकार के हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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