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* ४२० कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट *
उपशम- आत्मा में कारणवश कर्म के फल देने की शक्ति का प्रकट न होने देना, अथवा कर्म के उदय का अभाव, यानी कर्म का अनुदयरूप उपशम है।
उपशमक-अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसम्पराय, ये तीन गुणस्थान वाले उपशमक हैं। यानी नौवें, दसवें गुणस्थानवर्ती जीव उपशमक हैं, अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती उपचार से उपशमक कहे जाते हैं।
उपशम-निष्पन्नभाव-क्रोधादि कषायों के उदय का अभाव होने से जीव के जो परम.. शान्त अवस्थारूप परिणाम- विशेष होता है, उसे उपशम-निष्पन्नभाव कहते हैं।
उपशमनाकरण- कर्मों को उदय, उदीरणा, निधत्ति और निकांचनाकरण के. अयोग्य करना उपशमनाकरण है।
उपशमश्रेणी–जहाँ (अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसम्पराय और उपशान्तमोह गुणस्थान में ) जीव मोहनीय चारित्रमोहनीय को क्रमशः उपशान्त करता हुआ आरोहण करता है।
उपशान्त-कषाय-सम्पूर्ण मोहकर्म का उपशमन करने वाला ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती जीव ।
उपेक्षा - (1) सुख और दुःख में साम्यभाव से रहना, समचित्तता रखना । (II) सुख में अराग और दुःख में अद्वेष उपेक्षा है। (III) दूसरों के दोषों के प्रति दृष्टि न रखना उपेक्षा है। (IV) इष्ट-अनिष्ट में राग-द्वेष न करना उपेक्षा है । (V) राग और मोह का अभाव उपेक्षा या उदासीनता है।
उष्णस्पर्श-नाम-जिस कर्म के उदय से प्राणी का शरीर अग्नि के समान उष्ण होता है, वह उष्णस्पर्श-नामकर्म है।
उपेक्षासंयम-असंयमयोग्य कार्यों में प्रवृत्त न होना, संयमयोग्य कार्यों में प्रवृत्त होना उपेक्षा संयम है, अथवा देशकालज्ञ एवं त्रिगुप्ति - गुप्त श्रमण में राग-द्वेष का अभाव भी उपेक्षासंयम है।
1.
(ऊ)
ऊनोदरी तप- द्रव्य ऊनोदरी - आहार, वस्त्र, उपकरण, योगों की चपलता में कमी करना। भाव ऊनोदरी-क्रोधादि चार कषायों, राग-द्वेष, क्लेश, वाणी प्रयोग कम करना। ऊर्ध्वलोक-मध्यलोक के ऊपर खड़े किये हुए मृदंग के समान लोक को ऊर्ध्वलोक कहते हैं।
ऊर्ध्वदिग्व्रत- ऊर्ध्वदिशा- सम्बन्धी (पर्वत आदि पर आरोहणवत्) प्रमाण का जो नियम किया जाए, वह ।
ऊसर - जिस भूमि पर घास आदि कुछ भी उत्पन्न न हो, ऐसी बंजर भूमि को ऊस भूमि कहते हैं ।
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