SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 573
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * पारिभाषिक शब्द-कोष * ४१९ * उपाध्याय-जिनके पास सविनय जा कर मोक्ष (सर्वकर्मक्षय) के उद्देश्य से शास्त्र पढ़े जाते हैं तथा जो रत्नत्रय से युक्त हैं, मार्गभ्रष्ट जीवों के पथ-देशक हैं यानी निरीह वृत्ति से जिनोक्त पदार्थोपदेशक हैं, वे उपाध्याय कहलाते हैं। इन्हें वाचक, उवज्झाय, पाठक आदि भी कहते हैं। ये २५ गुणधारक होते हैं। उपायविचय-धर्मध्यान का एक भेद। (I) मन-वचन-काया की शुभ प्रवृत्तियों = पुण्यक्रियाओं का आत्मसात् करना उपाय है। वह उपाय मुझे किस कार से प्राप्त हो, इस प्रकार का चिन्तन उपायविचय है। (II) जो लोग दर्शनमोह के इय से सन्मार्ग से विमुख हो रहे हैं, उन्हें सन्मार्ग की प्राप्ति कैसे हो? इस प्रकार का चिन्तन भी उपायविचय है। उपासक-देव, गुरु और धर्म की बहुमान एवं तीव्र श्रद्धापूर्वक भक्ति, उपासना करने वाला उपासक या श्रमणोपासक है। उपांशुजप-ऐसा मंत्रोच्चारणरूप जप जो अन्तर्जल्प हो, जिसकी ध्वनि दूसरे को सुनाई न दे। उपधान-ज्ञानाचार-'जब तकं अनुयोगद्वार आदि शास्त्र में से कोई एक अमुक शास्त्र समाप्त नहीं होगा, तब तक मैं अमुक वस्तु का उपयोग नहीं करूंगा।' इस प्रकार का संकल्प उपधान-ज्ञानाचार है। उपधान-आगाढ़ादि रूप तपोयोग-विशेष उपधान-तप है, जो श्रुतग्रहण (शास्त्राध्ययन) की सफलता के लिए अवश्यकरणीय है। जिस शास्त्र या अध्ययन के लिए विहित जो तप में उपधान तप है, उसे अवश्य करना चाहिए। . उपपात-(1) देव और नारकों के जन्म का क्षेत्र उपपात कहलाता है यानी देवों का सम्पुटशय्या (पुष्प-शय्या) में तथा नारकों का उष्ट्रमुखी कुम्भीपाक में उपपात (जन्म) होता है। (II) विवक्षित गति से निकलकर अन्य गति में जन्म लेना भी उपपात या उपपाद कहलाता है। उपमान (प्रमाण)-प्रसिद्ध अर्थ की समानता से साध्य के सिद्ध करने को उपमानप्रमाण कहते हैं। यथा-मोसदृशो गवयः। --उपयोग-(I) जीव का ज्ञान-दर्शनरूप लक्षण उपयोग है। ज्ञान चैतन्य। (II) ध्यान। • (II) सावधानी। (IV) प्रयोजन। (V) आवश्यकता। (VI) जीव का शुभ, अशुभ और शुद्ध परिणाम भी उपयोग है। (VII) क्रोधादि कषायों के साथ जीव का सम्प्रयोग होना भी उपयोग है। उपयोग-शुद्धि-गमनागमन करते समय पैरों को उठाते-रखते हुए तद्देशवर्ती जीवों की रक्षा में चित्त की सावधानता को उपयोग-शुद्धि कहते हैं। - उपवास-विषयों, कषायों तथा त्रिविध या चतुर्विध आहार का सूर्योदय से दूसरे दिन के सूर्योदय तक त्याग करना उपवास है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy