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* ४१८* कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट
उद्योत- नामकर्म-जिस नामकर्म के उदय से जीव के शरीर में उद्योत (प्रकाश) होता है। उन्मत्त-भूतादि ग्रस्त व्यक्ति। यह दीक्षा के योग्य नहीं होता ।
उपकरण-संयम-अजीवकाय पुस्तक आदि के ग्रहण, धारण, रक्षण में संयम रखना, असंयम से बचना।
उपघात- नामकर्म - (I) जिस कर्म के उदय से जीव अपने शरीर में बढ़ने वाले प्रति जिह्वा, चोरदंत, अधिकांगुली आदि के अवयवों के द्वारा स्वयं घात (घर्पणादि) होता है, उसे उपघात-नाम कहते हैं। (II) अथवा जिस कर्म के उदय से स्वयंकृत बन्धन अथवा पर्वतपात आदि द्वारा अपना ही उपघात (मरण) हो, वह भी उपघात - नामकर्म है।
उपगूहन-बाल एवं अशक्त साधक द्वारा विशुद्ध मोक्षमार्ग की होने वाली हीलनानिन्दा आदि को दूर करना । यह सम्यक्त्व के आठ अंगों में से एक अंग है। इसके बदले कहीं-कहीं उपबृंहण नामक अंग है । जिसका अर्थ है - (I) उत्तम क्षमा आदि की भावना से सद्धर्म-वृद्धि करना। (II) अथवा साधर्मी भाई-बहनों के समीचीन गुणों की प्रशंसा द्वारा उन्हें प्रोत्साहित करना-आगे बढ़ाना ।
उपभोग- परिभोग- परिमाणव्रत - श्रावक का सातवाँ व्रत, जिसमें जीवनभर के लिए अन्न-पानादि उपभोग्य और वस्त्रालंकारादि परिभोग्य वस्तुओं का परिमाण (मर्यादा) किया जाता है।
उपचय-चित्त (गृहीत या संचित ) कर्मपुद्गलों के अबाधाकाल को छोड़कर आगे ज्ञानावरणादि स्वरूप से नि: सिंचन करना - क्षेपण करना ।
उपचार-विनय-आचार्यादि के सामने आने पर खड़ा होना, उनके सामने जाना तथा हाथ जोड़कर प्रणामादि करना ।
उपदेशरुचि-तीर्थंकर एवं बलदेवादि के उत्तम चरित के सुनने से जिसे तत्त्वश्रद्धा उत्पन्न हुई हो, उसे उपदेशरुचि कहते हैं । यह व्यवहार - सम्यक्त्व का एक प्रकार है।
उपधि-जीवन-निर्वाह के या सुखोपभोग के जितने भी साधन हैं, वे उपधि हैं। अथवा मुनियों की संयम - यात्रा के लिए जो भी उपकरण आदि हैं, वे उपधि हैं। उपधि का अर्थ माया- कपट भी है। वह दो प्रकार की है - औधिक और औपग्राहिक ( कारणवशग्राह्य)।
उपाधि - (I) परिग्रह के अर्जन और संरक्षणादि की चिन्ता और आसक्ति । (II) उपाधि पदवी, पद। (III) अन्य प्रकार से रही हुई वस्तु को दूसरे ढंग से देखने रूप कपट | (IV) कुटुम्ब में प्रसिद्ध उपनाम। (V) धर्म-चिन्ता।
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उपादेय - ग्रहण करने योग्य, उपादानकारण से सम्बन्धित, अतएव उससे अभिन्न कार्य। इसलिए उपादान-उपादेयभाव को कारण- कार्यभाव भी कहते हैं।
उपादानकारण- जो कारण कार्य के साथ तादात्म्य-सम्बन्ध रखता है, तथा जिसके विनष्ट होने पर विवक्षित कार्य उत्पन्न नहीं होता है।
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