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________________ * पारिभाषिक शब्द-कोष * ४१७ * उत्सर्ग-बाल, वृद्ध, शान्त और रुग्ण साधु मूलभूत आत्मतत्त्व के साधनभूत अपने योग्य अति कठोर संयम का आचरण करता है, वह संयमपरिपालन उत्सर्ग-मार्ग है। उत्कर्षण-कर्मप्रकृतियों की स्थिति और अनुभाग में वृद्धि होना। श्वेताम्बर परम्परा में इसका दूसरा नाम उद्वर्तन है। उग्रतप-एक से लेकर १५ दिन तक या एक मास आदि का प्रारम्भ करके मरण पर्यन्त उससे च्युत न होना। उत्कटिकासन-नितम्ब और एड़ियों के मिलने पर उत्कटिकासन होता है। उदीरणा-अधिक स्थिति और अनुभाग को लिये हुए जो कर्म स्थित हैं, उनकी उक्त स्थिति व अनुभाग को न्यून करके फल देने के उन्मुख करना उदीरणा है। उदय-कर्म-विपाक (फलदान) का प्रकट होना। पूर्वबद्ध कर्मों की द्रव्यादि निमित्तवश फल-प्राप्ति का परिपाक होना उदय है। उदयनिष्पन्न-कर्म के उदय से जीव और अजीव में जो अवस्था प्रादुर्भाव होती है, वह उदयनिष्पन्न कहलाती है। जैसे-नरकगति-नामकर्म के उदय से होने वाली जीव की नारक अवस्था। उदयवती (कर्मप्रकृतियाँ)-जिन-जिन कर्मप्रकृतियों के दलिक का स्थिति के अन्तिम समय में अपना फल देते हुए वेदन किया जाता है, उन कर्मप्रकृतियों को उदयवती कहते हैं। . उदानवायु-कण्ठप्रदेश में स्थित रहने वाली प्राण-वायु, जो रस आदि को ऊपर ले जाती है। वह वर्ण से लाल होती है, तथा हृदय, कण्ठ, तालु, भ्रुकुटि-मध्य और सिर में स्थित रहती है। __उदीरणा-अधिक स्थिति और अनुभाग को लिए जो कर्म अभी उदय में नहीं आए हैं, उनकी तप-संयम आदि से स्थिति व अनुभाग को कम करके उदयावलिका में प्रविष्ट करा कर फल देने के उन्मुख करना-फल देने से पहले ही फल भोग लेना उदीरणा है। जिन कर्मपुद्गलों का उदयकाल प्राप्त नहीं हुआ है, उनको उदय में स्थापित करना उदीरणाकरण है। यह उदय की ही एक विशेष अवस्था है। • उदासीन-तटस्थ, मध्यस्थ, पृथक् रहने वाला, उपेक्षा करने वाला। सांसारिक प्रपंचों या विषयों से निरपेक्ष, संसारमार्ग से विरक्त। - उदात्तीकरण-ऊर्वीकरण या विकारों या पतन की ओर जाती हुई इन्द्रियों तथा अन्तःकरण की प्रवृत्तियों-वृत्तियों को उदात्त = शुद्ध, पवित्र ध्येय या वृत्ति-प्रवृत्ति की ओर मोड़ देना। उदधिकुमार-भवनपति देवों का एक प्रकार। . उष्ण-परीषह-सहन-निर्वात, निर्जल, ग्रीष्मकालीन, सूर्यताप, लू, दावाग्नि से युक्त प्रदेश में प्रासुक जल के अभाव में दाह एवं प्यास से पीड़ित होने, स्वेदमग्नहोने पर भी प्राणिपीड़ापरिहार में दत्तचित्त साधुवर्ग द्वारा उष्णता के कष्ट को समभाव से सहन करना। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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