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* ४१६ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट *
ईर्यापथ-शुद्धि-जीवस्थान एवं जीवयोनि का ज्ञाता साधक द्वारा प्राणिपीड़ा परिहार का प्रयत्न करते हुए ज्ञान व सूर्यप्रकाश से आलोकित मार्ग पर द्रुत-विलम्बित, संभ्रान्त, विस्मय तथा परितः अवलोकन आदि दोषों से रहित हो कर चलना ईर्यापथ-शुद्धि है। ___ ईर्यासमिति-गमनागमनादि प्रत्येक चर्या करते हुए एकाग्रता और अचपलतापूर्वक दिन-रात में प्रासुक-जीवजन्तु रहित मार्ग पर चार हाथ (युगमात्र) भूमि को देख कर यतनापूर्वक गमनागमन करना। __ ईश्वर-जो आठों कर्मों जन्म-मरणादिरूप संसार तथा सर्वदुःखों से मुक्त, निरंजन-निराकार होते हैं, ऐसे सिद्ध-परमात्मा पूर्ण ईश्वर हैं। जिन्होंने चार घातिकर्मों से रहित होकर केवलज्ञान-दर्शन प्राप्त कर लिये वे वीतराग-जीवन्मुक्त ईश्वर हैं और आठों ही कर्मों से युक्त बद्ध ईश्वर हैं। किन्तु निश्चयदृष्टि से आत्मा के अनन्त चतुष्टयरूप आत्मिक ऐश्वर्य से सम्पन्न हैं, किन्तु ये चारों गुण अभी तक व्यक्त नहीं, अव्यक्त हैं, वे बद्ध ईश्वर हैं। जगत् का कर्ता-धर्ता-हर्ता कोई ईश्वर जैनदर्शन नहीं मानता। वह आत्मिक ऐश्वर्य-सम्पन्न को ईश्वर मानता है।
उच्चगोत्र-जिस कर्म के उदय से धर्मसंस्कारी लोकपूजित कुल में जन्म हो।
उच्चार-प्रसवण-समिति-प्रासक, द्वीन्द्रियादि जीवों से रहित तथा अंकरोत्पादनविहीन भूमि पर यतनापूर्वक मल, मूत्र, कफ, भुक्तशेष अन्नादि, नासिकामल आदि का परिष्ठापन = विसर्जन करना। इसे उत्सर्ग-समिति भी कहते हैं। इसका पूर्ण नाम ‘उच्चार-प्रसवणखेल-जल्ल-सिंघाण-परिष्ठापनिका समिति' है। उच्छ्वास-संख्यात आवलिका प्रमाण काल उच्छ्वास है।
उच्छ्वास-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव उच्छ्वास लेने में समर्थ हो, उसे उच्छ्वास-नामकर्म कहते हैं।
उच्छ्वास-पर्याप्ति-जिस शक्ति से उच्छ्वास योग्य वर्गणाद्रव्य ग्रहण करके तथा उसे उच्छ्वास के रूप में परिणमा कर छोड़ता है, उसे उच्छ्वास-पर्याप्ति कहते हैं।
उत्कालिकश्रुत-जिस अंग बाह्यश्रुत के स्वाध्याय का काल नियत नहीं है, वह उत्कालिक कहलाता है।
उत्तरप्रकृति-पर्यायार्थिकनय के आश्रय से किये जाने वाले पृथक्-पृथक् कर्मों की उत्तरप्रकृतियों के नाम का निरूपण।
उत्सर्पिणी (काल)--जिस काल में जीवों की आयु, शरीर की ऊँचाई, तल-विभूति आदि में उत्तरोत्तर वृद्धि हो। कालचक्र का आधा भाग।
उत्सूत्र-तीर्थंकर और गणधरों के उपदेश के विपरीत तत्त्व का स्वमति से कथन करना।
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