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कविज्ञान : भाग ४ का सारांश
कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या
कर्मबन्ध का अस्तित्व ___ कर्मवन्ध की सार्वभौम व्याख्या के सन्दर्भ में कर्मविज्ञान ने सर्वप्रथम कर्मवन्ध का अस्तित्व, जिसे अव्यक्त होने के कारण प्रत्यक्षवादी नास्तिक, अश्रद्धाशील, शंका-कांक्षाग्रत नहीं मानते, विविध शास्त्रीय प्रमाणों, युक्तियों और तर्कों के आधार पर सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। कर्मवन्ध के अस्तित्व के विषय में दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, ज्ञाताधर्मकथासूत्र, विपाकसूत्र आदि आगमों में प्रत्यक्षदर्शी महापुरुषों ने यत्र-तत्र पुण्य-पापकर्मवन्ध का उल्लेख किया है। अन्य दर्शनों और धर्म-सम्प्रदायों ने भी इसे माना है। अनुमानादि प्रमाणों से भी कर्मवन्ध सिद्ध होता है। समस्त संसारी जीवों में कर्मबन्ध का अस्तित्व है, जिसका फल उदय में आने पर मिलता है। संसारी आत्मा कथंचित् मूर्त हो जाने से कर्मवन्ध का कर्ता माना जाता है। यही कारण है कि संसारी जीव के साथ कर्मबन्ध प्रवाहरूप से अनादि है। संसारी जीव परतंत्र होने से तथा परभावों के प्रति राग-द्वेपाविष्ट होने से कर्मबन्धन से बद्ध है। फिर कर्म के अस्तित्व को सिद्ध करने वाले चार प्रमाण भी कर्मवन्ध के अस्तित्व के साधक हैं-(१) जीव और पुद्गल का परस्पर प्रभाव, (२) प्राणी के गग-द्वेषात्मक परिणाम, (३) संसार में प्राणियों की विविधता और बहुरूपता, तथा (४) मन-वचन-काया के योगों की चंचलता। दुःख-परम्परा का मूल : कर्मवन्ध ____ इस संसार में चारों गति के प्राणी किसी न किसी कारणवश दुःखी हैं। परन्तु सबको जो एक के बाद दूसरे दुःख की घटा प्राप्त होती है, उसका मूल कारण है-कर्मों का संयोग-सम्बन्ध = कर्मवन्ध। उस कर्मबन्ध को युक्तियों, शास्त्रीय प्रमाणों, आप्तपुरुषों की वाणी से तथा विविध घटित उदाहरणों द्वारा सिद्ध कर दिया है-इस अकस्मात् दुःख के आ पड़ने का क्या कारण है ? मकान के खरीददार पर अचानक आते हुए दुःख का, रूपवती धनिक पुत्री पर अकस्मात् आ पड़े शारीरिक-मानसिक दुःख का, दीनता-निर्धनता के सहसा आ - पड़े हुए, एक रात में करोड़पति से रोड़पति बनने का कारण पूर्वकृत कर्मवन्ध के सिवाय क्या हो सकता
है? अतः सुख-दुःख-परम्परा का मूल आत्मा के साथ कर्म का संयोग (बन्ध) ही है। वैपयिक-सुख या • 'शरीर-सम्वद्ध जन्मादि भी दुःखरूप कर्मवन्धक है। कर्मों से मुक्ति पाना ही दुःखों से मुक्ति पाना है।
कर्मबन्ध का यथार्थ और विशद स्वरूप - बाह्य द्रव्यबन्धन भी सभी प्राणियों के लिये दु:खदायक-पीडाजनक है, किन्तु कर्मवन्धनरूप भावबन्धन तो उनसे भी प्रबलतर कष्टदायक है। मूल में यदि कर्मबन्ध न हो तो कोई भी बाह्य बन्धन उत्पन्न नहीं हो सकता। पूर्वोक्त सभी द्रव्यवन्ध शरीर से सम्बद्ध हैं. जबकि कर्मबन्ध मूल में आत्मा से सम्बद्ध है। कर्मबन्ध का अर्थ सामान्यतया है-आत्मा के साथ नये कर्मों का संयोग सम्बन्ध या ग्रहण करना वन्ध है। मिथ्यात्व आदि कर्मबन्ध के हेतुओं द्वारा नये ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का ग्रहण करना कर्मबन्ध का परिष्कृत लक्षण है। कर्मबन्ध आत्मा के स्वभाव तथा निजी गुणों को विकृत. कुण्ठित और आवृत करके उसे परतंत्र, अनाथ एवं विमूढ़ बना देता है। कर्मवन्ध आत्मा को कैसे पराधीन और दुःखभागी बना देता है ? इसे कर्मविज्ञान में विविध युक्तियों द्वारा सिद्ध किया है। आत्मा और कर्म का स्वभाव भिन्न-भिन्न होते हुए भी दानों का संयोग केवल श्लेपरूप है, तभी तो दोनों का वियोग हो सकता है। संयोग भी दो प्रकार का होता है-भिन्नक्षेत्रवर्ती और एकक्षेत्रवर्ती। जैसे-रजकणों का संयोग भिन्नक्षेत्रवर्ती होता है, वे परस्पर जुड़ते तो हैं किन्तु
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