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________________ * ३९६ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * अपरिग्रह महाव्रत-साधुवर्ग का अपरिग्रह महाव्रत, तीन करण, तीन योग से ममत्व त्याग। अपरिग्रहवृत्ति-मोहकर्मोदयवश 'पर' में होने वाली ममत्व बुद्धि से निवृत्त होना। इसे अपरिग्रहता भी कहते हैं। अपरीत संसार-जिसने सम्यक्त्व आदि प्राप्त करके संसार (जन्म-मरण) को परिमित नहीं किया है, वह। अनादि मिथ्यादृष्टि जीव अपरीत-संसार कहलाता है। इसके दो प्रकार हैं-अनादि-अपर्यवसित अपरीत-संसार तथा अनादि-सपर्यवसित अपरीत-संसार। . अपर्याप्त-आहारादि छह पर्याप्तियों की अपूर्णता या उनकी अर्द्धपूर्णता। अपर्याप्त-जो पृथ्वीकायिकादि जीव अपर्याप्त नामकर्म के उदय से युक्त होते हैं। अपर्याप्ति नाम (कर्म)-जिस कर्म के उदय से जीव अपनी पर्याप्तियों को यथायोग्य पूरा न कर सके। ___ अप्रमाद-अष्टविध या पंचविध प्रमाद से रहित, प्रत्येक प्रवृत्ति में प्रमाद, असावधानी या अविवेक का अभाव। अप्रमत्त-जो मुनि या साधक अप्रमादयुक्त रहे। मद्य (मद) आदि पंचप्रमादों का सेवन नहीं करते, वे अप्रमत्त संयत कहलाते हैं। सप्तम गुणस्थानवर्ती मुनि या सप्तम गुणस्थान। अप्रमादाचारी-अप्रमादपूर्वक आचरण करने वाला साधक। आत्म-जागृतिपूर्वक चलने वाला। अप्रमाद-संवर-प्रत्येक प्रवृत्ति में मन-वचन-काया से प्रमादरूप आसव का निरोध करना। यतनापूर्वक चलना भी अशुभ आसव का निरोधरूप संवर है। अप्रत्याख्यानावरण (कषाय)-जिस कषाय के उदय से देशविरतिरूप अल्प प्रत्याख्यान तथा व्रती श्रावकधर्म की प्राप्ति न हो सके। इसे अप्रत्याख्यानी कषाय भी कहते हैं। अप्रतिबद्ध-जो विहार, आचरण या साधना द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से प्रतिबद्ध, न हो। अप्रतिहत-किसी से नहीं रुका हुआ, अबाधित, अखण्डित या विसंवादरहित। अपलाप-किसी के पास से शास्त्र या ग्रन्थ पढ़कर उसके नाम को छिपाना, अन्य गुरु या अध्यापक का नाम बताना। अथवा मूल सिद्धान्त को छिपाकर मनगढन्त प्ररूपणा करना अपलाप है। अपरावर्तमाना (कर्मप्रकृति)-जो कर्मप्रकृतियाँ अन्य प्रकृतियों के बन्ध, उदय या दोनों को न रोककर अपने बन्ध, उदय या दोनों को प्राप्त होती हैं, परिवर्तित नहीं होतीं, वे अपरावर्तमाना कहलाती हैं। इसके विपरीत जो बन्ध, उदय और बन्धोदय में दूसरी प्रकृतियों को रोककर स्वयं का बंधादि करती हैं, वे परावर्तमाना कहलाती हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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