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* पारिभाषिक शब्द-कोष * ३९५ * अन्यलिंगसिद्ध-जैनधर्मीय श्रमण-वेश के सिवाय अन्य किसी वेश में साधना करके जो सिद्ध-सर्वकर्ममुक्त हुआ हो।
अन्यदृष्टि-प्रशंसा-विपरीत (मिथ्या) दृष्टि जनों की मन से, वचन से प्रशंसा करना, उन्हें जाहिर में सम्मानित करना, प्रतिष्ठा देना।
अन्यदृष्टि-संस्तव-मिथ्यादृष्टियों का अत्यधिक परिचय-संसर्ग करना। ये दोनों सम्यक्त्व के दोष (अतिचार) हैं।
अन्यत्वभावना-अन्यत्वानुप्रेक्षा-आत्मा के साथ शरीर और शरीर से सम्बद्ध सजीव-निर्जीव पदार्थों की भिन्नता का बार-बार चिन्तन करना।
अन्यथानुपपत्ति-साध्य (पक्ष) के अभाव में हेतु का घटित न होना अन्यथानुपपत्ति है।
अन्नपुण्य-भूखे (क्षुधा-पीड़ित) व्यक्ति को निःस्वार्थभाव से अन्न से, भोजन से व आहार से तृप्त करना अन्नपुण्य है।
अन्नग्लायक-ऐसा साधक जो सरस या नीरस जैसा भी अन्न मिले, उसे समभावपूर्वक निगल जाता है, उसी में तृप्त हो जाता है।
अन्वय-अवस्था, देश और काल के भेद होते हुए जो कथंचित् तादात्म्य की व्यवस्था देखी जाती है, उसे व्यवहार के लिए अन्वय माना जाता है।
अन्वय-व्यतिरेक-उसके होने पर दूसरे का होना अन्वय है। उसके अभाव में दूसरे का भी अभाव होना व्यतिरेक है।
- अपकर्षण-जिस क्रिया या प्रवृत्ति से सत्ता में पड़े हुए पूर्वबद्ध कर्म की स्थिति और रस में कमी हो जाये। इसे श्वेताम्बर परम्परा में अपवर्तनाकरण कहा जाता है। सम्यग्दर्शनादि से पूर्व-संचित कर्मों की स्थिति एवं अनुभाग को तीव्र अध्यवसायविशेष के द्वारा क्षीण या न्यून कर देना अपकर्षण है। इसके ठीक विपरीत है उत्कर्षण-सत्ता में पड़े हुए पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति और अनुभाग में किसी तीव्र अध्यवसाय से वृद्धि कर देना उत्कर्षण है।' इसे श्वेताम्बर परम्परा में उद्वर्तनाकरण कहा जाता है। इन्हें क्रमशः अपवर्तन और उद्वर्तन भी कहते हैं। - अपध्यान-राग-द्वेष के वशीभूत हो कर दूसरों के वध, बन्धन, छेदन, परस्त्री-हरण, ठगी, लूट, धनादि का संरक्षण-संग्रहण आदि का चिन्तन करना, प्लान बनाना रौद्रध्यान है, तथा इष्ट-वियोग-अनिष्ट-संयोग के कारण चिन्ता, उद्विग्नता, रुदन, विलाप आदि करना आर्तध्यान है, ये दोनों ध्यान कुध्यान = अपध्यान हैं, त्याज्य हैं।
अपरविदेह-मेरुपर्वत के पश्चिम की ओर से विदेह क्षेत्र का आधा भाग।
अपरिग्रह-अमूर्छा, अनासक्ति, चल-अचल पदार्थों व शरीर आदि पर भी ममत्व न होना।
अपरिगृहीता-पति-विहीन, किसी के द्वारा अपरिणीत स्त्री, वेश्या या बदचलन, पुंश्चली नारी, जो परपुरुष-गमन करती है।
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