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________________ * पारिभाषिक शब्द कोष * ३९७ अपरिवर्तनीय कर्मबन्ध - ऐसा निकाचित या निधत्त कोटि का बन्ध, जिसमें अशुभ को शुभ में या शुभ को अशुभ में बदलने अथवा स्व-सजातीय उत्तरप्रकृति में संक्रमण करने की गुंजाइश न हो। अपरिखेदित्व (वचनातिशय) - अनायास ( बिना परिश्रम के ) ही जिस अतिशय के प्रभाव से वचन का निर्गमनरूप चौतीसवाँ वचनातिशय । अपवर्ग-जहाँ जन्म, जरा, मरण आदि दुःखों तथा अज्ञानादि दोषों का पूर्णतः विनाश हो जाता है, ऐसी स्थिति यानी सर्वकर्ममुक्ति । अपवर्तना-संक्रमण-आत्मा के विशिष्ट अध्यवसायों के प्रभाव से किसी कर्मप्रकृति को (कुछ अपवादों के सिवाय) अपनी सजातीय शुभ प्रकृति में रूपान्तरण या उदात्तीकरण या परिवर्तन करना। अपर्यवसित अपयशभय - निन्दा, बदनामी, अपकीर्ति होने का भय । अपवाद - सामान्य विधि का निर्देश कर देने के पश्चात् आवश्यकतानुसार द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावादि देख कर उसमें यथायोग्य विशेषता (छूट) का विधान किया जाता है, वह अपवाद है । किन्तु वह अपवाद उत्सर्ग-सापेक्ष होना आवश्यक है। श्रुत - श्रुतज्ञान का 90वाँ भेद | शाश्वत श्रुतज्ञान । अपात्र - जो हिंसादि, पंच पापकृत्यों में रत, मद्य - माँसाहारी, महारम्भी - महापरिग्रही, व्यभिचारी, तीव्र कषायी हो, अथवा जो दुर्लभबोधि, मिथ्यात्वी एवं क्रूर हो, वह कुपात्र या अपात्र है। अपाय - अभ्युदय और निःश्रेयस-साधक क्रियाओं का विनाशक प्रयोग । अथवा इहलोकभय आदि सात प्रकार का भय भी अपाय कहलाता है। पापवर्द्धक अनिष्ट या अनिष्ट फल । अपायदर्शी-इहलोक-परलोक में पाप के फलरूप अपाय (विनाश) के देखने वाले पुरुष को अपायदर्शी कहते हैं । अपायविचय- मिथ्यात्व असंयम, प्रमाद, कषाय और योगजनित कर्मबन्ध के फलस्वरूप जन्म-जरा-मरण-व्याधि-वेदनाओं रूप अपायों से रहित होने के उपाय का चिन्तन करना, अथवा मिथ्यादर्शन- ज्ञान - चारित्र - तप का अपाय = विनाश कैसे हो ? इस प्रकार का चिन्तन, या राग-द्वेष - मोहादि से जनित शुभाशुभ कर्मों से जीवों का अपाय (छुटकारा ) हो सकता है, ऐसा चिन्तन अपायविचय है। हिंसादिरूप आनवद्वारों से उत्पन्न होने वाले अनर्थों-अनिष्टों का बार-बार चिन्तन करने रूप अपायानुप्रेक्षा भी इसी के अन्तर्गत है। अपार्द्ध पुद्गल परावर्तनकाल-सम्यक्त्व आदि की प्राप्ति से हुए परीतसंसारी जीव के संसार-परिभ्रमण की लगभग अनन्तकाल - समकक्ष उत्कृष्ट अवधि । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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