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* कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * ५१ *
आन्तरिक स्फुग्णा का ज्वार उत्पन्न नहीं हा तव तक मन. बुद्धि. चित्त. शरीर इन्द्रियाँ आदि कितनी ही सक्षम और सर्गाटत क्यों न हो. उसमें सक्रियता एवं कार्यक्षमता पैदा नहीं होती। अन्न, जल एवं खाद्य पदार्थों को पेट में डाल देने मात्र से शारीरिकमानसिक, बौद्धिक, ऐन्द्रियक एवं अवयविक शक्ति प्राप्त नहीं हो जाती, वे शक्ति-स्रोतों को धकेलने वाली, गर्मीभर उत्पन्न कर देते हैं. किन्तु उनमें अपनी-अपनी क्रिया करने की क्षमता एवं शक्ति प्राप्त होती है--प्राण-शक्ति (तैजस-शक्ति = ऊर्जा-शक्ति) से। प्राण-शक्ति से सम्पन्न व्यक्ति साहस के प्रत्येक कार्य में विजयी एवं सफल होते हैं। प्रत्येक प्राणी के जीवन का मूलाधार प्राण-शक्ति है। शरीर में सभी इन्द्रियाँ आदि वाह्यकरण तथा मन, बुद्धि आदि अन्तःकरण हो, किन्तु प्राण या प्राण-शक्ति (तैजस् = विद्युत्-शक्ति) न हो तो प्राणी मृत समझा जाता है। अथवा वह जीवित हो तो भी प्रत्येक कार्य में निराश, हताश, अक्षम, साहसहीन. निर्वीर्य, भयभीत, हीनभावनाग्रस्त. दुःख-दैत्य-पीड़ित रहता है. किसी भी सत्कार्य को करने में हिचकिचाता है। खतग उटाने तथा आत्म-विश्वासपूर्वक कार्य करने की क्षमता नहीं होती।
यह प्राण एक होते हुए भी शरीर के विभिन्न कार्यकलापों के लिए उन्हें मुख्यतया ५ केन्द्रों में विभक्त किया गया है-प्राण, अपान. समान. उदान और व्यान। इन्हीं पाँच प्राण-केन्द्रों का उत्तरदायित्व सँभालने वाले पाँच उपकेन्द्र हैं-देवदत्त. वकल. कर्म. नाग और धनश्रय। इन्हें उपप्राण कहते हैं। कर्मविज्ञान की दृष्टि से इन ५ + १५ = १0 प्राणी-उपप्राणों द्वारा यतनाचारपूर्वक मन-वचन-काया से प्रवृत्ति की जाए तो प्राणसंवर की साधना हो सकती है। मानव-शरीर में आहार शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मनः ये छह पर्याप्ति के रूप में पर्याप्त प्राण-ऊर्जा के केन्द्र हैं। ये सारे प्राण-शक्ति के मोत हैं। इसी प्रकार जैनागमों में इस प्रकार के विशिष्ट प्राणां का निरूपण है, जो श्रोत्रेन्द्रियवलप्राण से लेकर श्वासोच्छवासबलप्राण और आयुष्यबलप्राण तक है। ये दस वलप्राण शरीर के विभिन्न भागों को शक्ति देने में सहायक हैं। कर्मविज्ञान ने दर्शाविध प्राण-शक्ति की विभिन्न कार्यक्षमता, सक्रियता और शक्तिमत्ता का विश्लेपण करके बताया है कि इनका क्षय, अपव्यय और अत्युपयोग रोकने पर ही प्राणसंवर की साधना हो सकती है। दशविध बलप्राणों का संवर कैसे और कैसे नहीं ? ... जो इन दसों वलप्राणों (प्राण-शक्तियों) का दुर्व्यसनों में तथा विविध विषयासक्ति में अपव्यय कर डालते हैं तथा सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र. अहिंसा, संयम, तप आदि संवर-निर्जरा और मोक्ष की साधना में सृजनात्मक पुरुषार्थ करने के बदले युद्ध, संघर्ष तथा हिंसात्मक कार्यों एवं माँसाहार, मद्यपान, शिकार, हत्या, दंगा, लूटपाट, व्यभिचार आदि ध्वंसात्मक कार्यों में पुरुषार्थ करते हैं. उनकी प्राण-ऊर्जा नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है। इन दसों ही प्राणों की ऊर्जा-शक्ति कैसे प्रवल हो सकती है और कैसे निर्बल होती है ? इसका संवा-साधना की दृष्टि से शरीरशास्त्र. मनोविज्ञानशास्त्र. योगशास्त्र आदि के परिप्रेक्ष्य में सांगोपांग वर्णन कर्मविज्ञान ने किया है। ___ साथ ही अगले निबन्ध में यह बताया है कि भौतिक विद्युत् की अपेक्षा प्राणिज विद्युत् कितना प्रबल है? इसे वेदों, उपनिपदों, गीता, जैनागम आदि में ब्राह्मी-शक्ति, परमात्म-शक्ति, ब्रह्मतेज आदि के रूप में वर्णित किया गया है। प्राणसंवर से प्रसुप्त प्राणवल को जाग्रत करके अनन्त आत्म-शक्ति भी प्राप्त हो सकती है, जो अभी आवृत, सुपुप्त, विकृत एवं मूर्छित है। प्राणसंवर-साधना में अवरोधक सूत्र-मार्ग कल्पविरुद्ध अकरणीय-अनाचरणीय मन-वचन-काय-प्रवृत्तियों, दुर्भावनाओं. दुश्चेष्टाओं, दुर्वृत्तियों, दुश्चिन्तनों और दुानों आदि से जूझने की शक्ति भी इसी प्राणबल से मिलती है। फिर प्राणवल एवं श्वासोच्छ्वासबल * प्राणसंवर का महत्त्व और उनसे ऊर्जा-शक्ति के संवर्धन का उपाय विविध उपनिपदों. पुराणों, आगमों आदि के प्रमाणों से कर्मविज्ञान ने प्रस्तुत किया है तथा आरोविज्ञानक्षेत्रीय प्राणायाम की अपेक्षा अध्यात्मक्षेत्रीय प्राणायाम का महत्त्व अधिक वताकर उनमे संवर की उपलब्धियों का दिग्दर्शन भी कराया गया है। अध्यात्मसंवर का स्वरूप, प्रयोजन और उसकी साधना
निश्चयदृष्टि से आत्मा अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन. अनन्त अव्यावाध आत्मिक-सुख (आनन्द) और अनन्त बलवीर्य (शक्ति) से सम्पन्न है, किन्तु वर्तमान में सांसारिक छद्मस्थ आत्माओं को ज्ञानादि आवृत, कुण्ठित, सुषुप्त या विकृत हैं। इनका कारण है-दुर्लभ मनुष्य-जन्म पाकर भी मानव मोहनीय कर्मवश मिथ्या
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