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* ५० * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु *
वर्तमान को जानती है, भूतकालिक घटना का स्मरण करती है, भविष्य के विषय में तदनुरूप चिन्तन कर सकती है। यों तो द्रव्यमन अचेतन है, किन्तु आत्मा द्वारा मिली हुई चेतना जिसके माध्यम से प्रकट होती है, वह भावमन सचेतन है। अमनस्क प्राणियों में द्रव्यमन न होने पर भी भावमन तो है ही; मन का महत्त्व इसलिए है कि यह जैसे आनव और बन्ध का कारण है, वैसे संवर, निर्जरा और मोक्ष का भी कारण है। समस्त शुभ, अशुभ और शुद्ध भावों = परिणामों का मूलाधार या प्रवेश-द्वार मन है। मन की शक्तियाँ अगाध हैं, उनका अशुभ दिशा में उपयोग किया जाये तो नरक-तिर्यंच में और शुभ दिशाओं में किया जाये तो देवलोक या मनुष्यलोक में तथा आध्यात्मिक विकास की दिशा में उपयोग किया जाए तो वीतरागता की .. भूमिका पर पहुँचाकर वह मोक्ष के द्वार भी खोल सकता है। समस्त तीर्थंकरों, योगिजनों, महापुरुषों, मनोवैज्ञानिकों, दार्शनिकों आदि ने मन की प्रचण्ड शक्ति का एक स्वर से स्वीकार किया है परन्तु उस प्रचण्ड मनःशक्ति का सदुपयोग-दुरुपयोग उपयोगकर्ता पर निर्भर है। जैन कर्म-सिद्धान्तानुसार मोहमीये कर्म का उत्कृष्ट बन्ध काययोग से एक सागरोपम का, वचनयोग से २५ सागरोपम का हो सकता है, जबकि मनोयोग के मिलने पर उसका उत्कृष्ट बन्ध ७0 कोटाकोटि सागरोपम काल तक पहुँच जाता है। तन्दुलमत्स्य जैसा पंचेन्द्रिय समनस्क प्राणी मन से हिंसा का विचार करने मात्र से मरकर सप्तम नरक का मेहमान बन जाता है। यह है बन्ध की दृष्टि से मन की अगाध शक्ति का परिचय। दूसरी ओर मोक्ष की दृष्टि से भी मन अपार शक्तिशाली है। सम्यग्दर्शन-विरति-अप्रमाद-अकषाय-अयोगसंवर तथा अहिंसादि पाँचों संवरों की साधना का सर्वप्रथम जन्म मन में होता है। अतः बन्ध और मोक्ष का आनव और संवर का सर्वप्रथम कारण मन ही है। मनोनिग्रहरहित तथा अनेकाग्रचित्त व्यक्ति जीवन में किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं हो सकता। ____ मनोनिरोध, मनोनिग्रह, मनोवशीकरण, मनःसंयम, मनोगुप्ति, मनोविजय, मनोविलय, मनःशून्यता, मनोदमन, मनःसमाधारणता (एकाग्रता), मन को मारना, मनःस्थिरता आदि सव एक या दूसरे प्रकार से मनःसंवर के ही विविध रूप हैं। किन्तु मन को सर्वथा निष्क्रिय, निश्चेष्ट तथा मन में उठने वाले चिन्तन-मनन को दवा देना या सर्वथा रोक देना मनःसंवर नहीं है और न ही स्वयं निश्चेष्ट, निष्क्रिय, निढाल, निराश होकर वैट जाना मनःसंवर है, तथा स्वयं शराव, गाँजा, भाँग, अफीम आदि नशीली या तामसिक चीजें सेवन करके मूढ़ वनकर मन को विषयों में रमण करने की खुली छूट दे देना भी संवर नहीं है।
___ मनरूपी अश्व को श्रुतज्ञानरूपी लगाम खींचकर रोकना मनोनिग्रह है, इसी प्रकार मनरूपी उन्मत्त हाथी को ज्ञानरूपी अंकुश से वश में करना मनोवशीकरण है। मन को विपयों से शून्य (रहित) कर देना मन का मर जाना है तथा अकुशल मन का निरोध और कुशल मन का शुभोपयोग या शुद्धोपयोग में प्रवर्तन करना मनःसंयम है। मन के द्वारा विषयों का स्मरण, चिन्तन-मनन और विकल्प न करना मनःशून्यता है। मन को राग-द्वेषादि विकारों या मिथ्यात्वादि आम्रवों से हटाकर धर्म-शुक्लध्यान में संवर में एकाग्र करना मनःसंवर है। मन को रागादि उत्पन्न करने वाली मनोज्ञ तथा द्वेषादि उत्पन्न करने वाली अमनोज्ञवृत्तियों से हटाकर समभाव में स्थिर करना मनोनिरोध है। मनःसंवर की सिद्धि के लिए वीतरागता = समतारूप लक्ष्य के प्रति एकाग्र होकर जीवनभर वैराग्यपूर्वक अभ्यास करना अनिवार्य है। मृत्यु के भय से मुक्त साधक ही मनःसंवर को सिद्ध कर सकता है। इसके लिए दृढ़ इच्छा-शक्ति, आत्म-विश्वास, धैर्य और प्रवल मनोवल आवश्यक है। समय-समय पर उठने वाली विषयसुखभोग की स्पृहा का उदात्तीकरण करना, विषयसुखों को आत्मिक-सुखों में लगाना, विषयसुखरति को परमात्मभावरति (भक्ति) में मोड़ देना, मन को पवित्र और निर्मल रखना तथा मनोनिग्रह में बाधक बातों-वाद-विवादों, निन्दा, ईर्ष्या, द्वेष. घृणा आदि पापस्थानों में दूर रहना आवश्यक है। तथैव आशा. तृष्णा, कामना, वासना, प्रसिद्धि. प्रशंसा आदि से निर्लिप्त रहने का अभ्यास करना. प्रलोभनकारी आनवयुक्त विचारों को दृढ़तापूर्वक खदेड़ना. नामजप, बाह्याभ्यन्ता तप, सत्संग. स्वाध्याय तथा अवचेतन मन को वार-बार शुद्ध सुझाव (ऑटोसजेशन) देना आदि भी मनःसंवर में सहायक है। अन्तःकरण को हरदम तप और संयम से भावित रखना भी मनःसंवर के लिए उपयोगी है। प्राणसंवर का स्वरूप, साधना और प्रयोग
किसी भगीरथ कार्य को सम्पन्न करने के लिए जब तक बाह्य पराक्रम के साथ आन्तरिक पराक्रम, भीतर का उत्साह, अन्तर में साहस का संचार, आत्म-विः
, इच्छा-शक्ति या संकल्प-शक्ति
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