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* कर्म - सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु *४९*
भलीभाँति साधने का अभ्यास करना चाहिए, ताकि वह परीपहों, उपसर्गों को सहने तथा कायोत्सर्ग करने में सक्षम हो सके और आम्रवों का निरोध और पूर्ववद्ध कर्मों की निर्जग कर सके। कायसंवर साधक को भगवान महावीर आदि की भाँति साधना समय काया को सर्वथा विस्मृत करके एकमात्र आत्मानन्द, आत्म-समाधि और आत्म-रमणता में लीन हो जाना चाहिए।
वचनसंवर की महावीथी
वचनसंवर के सन्दर्भ में कर्मविज्ञान ने सर्वप्रथम वाणी के स्वरूप माहात्म्य, प्रभाव और विविध क्षेत्रों मैं उसके प्रयोग को विभिन्न प्रमाणों और युक्तियों द्वारा उजागर किया है। तदनन्तर वाणी के समुचित प्रयोग से होने वाले लाभों और अनुचित या अत्यधिक तीव्र प्रयोग से होने वाली हानियों का जिक्र किया है। वाक्संवर करने के लिए वाणी के स्थूल से सूक्ष्म, सूक्ष्मतर एवं सूक्ष्मतम प्रयोग का क्रमशः अभ्यास करना तथा जहाँ तक हो सके निरर्थक वाणी प्रयोग से बचना, वाग्गुप्ति करना और मौनाभ्यास करना आवश्यक है। जब मन अत्यधिक सशक्त एवं एकाग्र हो जाता है, तब भाषा के आलम्बन की आवश्यकता नहीं रहती । धर्मध्यान के पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत प्रयोग से क्रमशः आगे बढ़ते-बढ़ते साधक शुक्लध्यान के स्तर पर पहुँचकर वाक्संबर की परिपूर्णता प्राप्त कर सकता है। संवर और निर्जरा का लाभ प्राप्त करना ही वाक्संवर का उद्देश्य है, जिसकी निष्पत्ति निर्विचारता, निर्विकल्पना, निर्वचनता तथा शब्दातीत अवस्था की प्राप्ति में होती है। साथ ही वाणी में भी स्थिरता और शान्ति उत्पन्न होती है।
इन्द्रियसंवर का राजमार्ग
अनन्त ज्ञानादि ऐश्वर्य सम्पन्न आत्मा मतिज्ञानावरणीय कर्मों से आवृत होने के कारण पाँचों इन्द्रियों और नोइन्द्रिय (मन) के माध्यम से पदार्थों का ज्ञान करता है। इसलिए इन्द्रियाँ आत्मा के अस्तित्व का बोध कराने में भी कारण हैं। द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय के रूप से इन पाँचों इन्द्रियों के दो-दो प्रकार हैं। द्रव्येन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों से सम्पर्क करके भावेन्द्रियों को और वे भावेन्द्रियाँ जीवात्मा की लब्धि (शक्ति) विशेष होने के कारण चेतना (आत्मा) को प्रभावित करती हैं। कर्मविज्ञान ने बताया है कि इन्द्रियों की क्षमता बढ़ाने से अनेक प्रकार के भौतिक और आध्यात्मिक लाभ प्राप्त हो सकते हैं, परन्तु इन्द्रियसंवर या इन्द्रियनिग्रह करने के लिए इन्द्रियों का दुरुपयोग या अत्यधिक व मर्यादाविरुद्ध स्वच्छन्द उपयोग को रोकना अनिवार्य है । बल्कि जब इन्द्रियाँ विषयों का ग्रहण और सेवन करने के साथ-साथ राग वा द्वेप, आसक्ति या घृणा या • अनुकूल-प्रतिकूल विषयों के प्रति आकर्षण- विकर्षण अथवा सुख-दुःख का अनुभव करती हैं, तब आध्यात्मिक विकास के बदले ह्रास और आत्म-शक्तियों का विनाश होता है, उसका निरोध (कर्मानव निरोध) करना ही इन्द्रियसंवर का राजमार्ग है । इन्द्रियों का अत्यावश्यक विषयों में प्रवृत्त होना बुरा नहीं है, और ऐसा करना शक्य भी नहीं है. बुरा है -विषयों में प्रवृत्त होने के साथ-साथ राग-द्वेप, आसक्ति घृणा, प्रियता - अप्रियता वेदन, अनुभव या भाव करना। उसी का निरोध, वशीकरण या निग्रह करने का अभ्यास करना इन्द्रियसंवर है। एक दृष्टि से देखा जाए तो कर्मास्रवों का मूल कारण इन्द्रियाँ नहीं, मन (भावमन) तथा आत्मा स्वयं ही है, . किन्तु ज्ञानियों का कथन है- इन्द्रियाँ, दुर्बल और अजाग्रत (प्रमत्त) आत्मा को बलात् विषयों की ओर प्रवृत्त करके उनके प्रति आसक्ति या घृणा के चक्कर में फँसाती हैं। अतः इन्द्रियों को नष्ट या विकृत करने की अपेक्षा या उनके द्वारों को बन्द करने की अपेक्षा इन्द्रियों और मन के द्वार पर सावधान होकर पक्का पहरा देने का अभ्यास करने से तथा शुद्ध आत्मा (परम आत्मा) के स्वरूप का चिन्तन-मनन- अनुप्रेक्षण करने से इन्द्रियसंवर की साधना सध जाती है और सर्वप्रथम मन पर नियंत्रण करने से राग-द्वेप-मोहादि विकारों या कपायों-नोकपायों पर विजय प्राप्त हो सकती है। कपायविजय इन्द्रियविपयासक्ति पर विजय पाना आसान है। कर्मविज्ञान ने इन्द्रियों पर निरोध, निग्रह तथा मार्गान्तरीकरण - उदात्तीकरण के सभी उपायों का युक्ति, सूक्ति और अनुभूतिपूर्वक विश्लेषण करके इन्द्रियसंवर का प्रशस्त उपाय निर्दिष्ट किया है।
मनःसंवर का महत्त्व, लाभ, उद्देश्य तथा यथार्थस्वरूप और विविधरूप
सांसारिक प्राणियों की आवृत चेतना के प्रकटीकरण का सशक्त माध्यम मन है । इन्द्रियों के द्वारा वर्तमानग्राही ज्ञान होता है, जबकि मन की मानसिक चेतना में त्रैकालिक ज्ञान का सामर्थ्य है, यानी वह
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