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________________ * ४८ * कर्म - सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * किन्तु चौथे प्रकार का संसार - महारण्य का महायात्री, जो अभी व्यवहारधर्म (नैतिकता ) की भूमिका पर भी नहीं आ पाया है, जो अभी हिंसादि भयंकर पापाचरण में रत है, उसी पापपथ को श्रेष्ठ समझकर चल रहा है, जिसे पुण्यपथ का बोध तक नहीं है, उसे सर्वप्रथम सर्वथा हेय पापपथ को यथाशक्ति त्याग कराकर, पुण्यपथ के लाभ और अल्प कठिनाइयाँ बताकर पुण्यपथ पर लाना अत्यावश्यक है। अतः उसके लिए फिलहाल पुण्य उपादेय है। इसलिए पुण्य और पाप की हेयता और उपादेयता को अनेकान्तदृष्टि से समझकर चले तो व्यक्ति एक दिन संवर और निर्जरा के मार्ग को अपनाकर सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। आम्रवमार्ग संसारलक्ष्यी और संवरमार्ग मोक्षलक्ष्यी मनुष्य के समक्ष प्रेय और श्रेय दोनों मार्ग खुले हैं, प्रेयमार्ग का प्रारम्भ प्रलोभन, स्वार्थ, लोभ, मोह एवं क्षणिक इन्द्रिय मनोविषय सुख प्राप्ति की लिप्सा से होता है और अन्त होता है - पतन, विनाश और पश्चात्ताप में। यह अदूरदर्शिता और असावधानता का संसारलक्ष्यी आम्रवमार्ग है। दूसरा है श्रेयमार्ग - जिसमें व्यक्ति अपनी मन-वचन-काया की शक्तियों को उपर्युक्त सभी तात्कालिक भयों, प्रलोभनों, स्वार्थी एवं विषयसुखलिप्सा से बचाकर स्वकीय विवेक-बुद्धि एवं स्थिरप्रज्ञा से अन्तर्मुखी बना लेता है, फिर उन्हें आध्यात्मिक उन्नति और आत्मा की अनन्त चतुष्टयात्मक उपलब्धि एवं मुक्ति की अक्षयनिधि प्राप्त करने में लगाता है। यह निःश्रेयस्कर श्रेयमार्ग सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्षलक्ष्यी संवरमार्ग है। विविध युक्तियों और आगमिक उदाहरणों एवं अनुभूतियों से कर्मविज्ञान ने इसे विश्लेषण करके प्रतिपादित किया है। अन्त में प्रेरणा दी है कि लुभावने आम्रवमार्ग से बचकर मोक्ष प्रापक संवरमार्ग पर चलने का तथा संवरनिष्ठ बनने का प्रयत्न करो। आम्रव की बाढ़ और संवर की बाँध आत्मारूपी नदी में मन, वचन और काया के योगों के साथ मिथ्यात्वादि चार पर्वतीय निर्झर मिलकर कर्मों के आम्रव का प्रवाह तीव्र गति से प्रविष्ट होकर बाढ़ का रूप धारण कर लेते हैं। कर्मास्रवों की इस बाढ़ का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है- पंच स्थावर (एकेन्द्रिय) जीवों पर, फिर उत्तरोत्तर कम प्रभाव होता है पंचेन्द्रियों पर, उनमें भी मनुष्यों पर सबसे कम । इस बाढ़ के मिथ्यात्व अविरति (अव्रत ), प्रमाद, कपाय और योग पाँच स्रोत हैं। इन पाँचों आस्रवों की बाढ़ को रोकने के लिए आध्यात्मिक विकास क्रमानुसार क्रमशः सम्यक्त्वसंवर, विरतिसंवर, अप्रमादसंवर, अकषायसंवर और अयोगसंवर की बाँध बाँधने का पराक्रम करना अनिवार्य है। संक्षेप में, इन पाँचों द्रव्य भावसंवरों को एक ही संवरतत्त्व में समाविष्ट करना चाहें तो कह सकते हैं - जीव के राग, द्वेष, मोह, कषाय आदि आन्तरिक वैभाविक परिणामों का निरोध करना भावसंवर है, और उसके निमित्त से योगद्वारों से आत्मा में प्रविष्ट होने वाले कर्म- पुद्गलों के परिणामों का निरोध करना द्रव्यसंवर है । कर्मविज्ञान ने निरूपण किया है कि संवर की दृढ़ साधना से नैतिक साहसपूर्वक आम्रवों को दृढ़तापूर्वक रोकने, आत्म-गुणों आवृत और विकृत करने वाले आन्तरिक शत्रुओं को ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से उनका त्याग करना है, उनसे जूझकर खदेड़ना है, तभी संवर की पक्की बाँध बन सकेगी। साथ ही आम्रवों की जो जड़ें हैं उन्हें भी काटनी होंगी। कायसंवर का स्वरूप और मार्ग कायसंवर के सन्दर्भ में कर्मविज्ञान ने सर्वप्रथम काया के गलत और सही मूल्यांकन की समीक्षा की है। काया के सम्बन्ध में अतिभोगवादी, हीनताग्रस्त लोगों का गलत दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए जैन-कर्मविज्ञान ने अनेकान्त दृष्टिकोण से उसकी नश्वरता, क्षणभंगुरता, घृणितता व साथ-साथ आध्यात्मिक दृष्टि से काया से धर्मपालन, संवर- निर्जरा, तप, संयम अहिंसादि व्रताचरण की साधना में उपयोगिता भी बताई है। शरीर तथा शरीर से सम्बद्ध मन, वचन, इन्द्रिय, अंगोपांग आदि से विवेकपूर्णक प्रवृत्ति - निवृत्ति. उपयोगिता - अनुपयोगिता का अनुप्रेक्षण प्रेक्षण करते हुए कायसंवर की साधना करने का विधान किया है। शरीर के प्रति ममता, आसक्ति, मूर्च्छा आदि का निवारण करने हेतु अशुचित्व, अनित्यत्व, एकत्व, अशरण आदि अनुप्रेक्षाओं तथा कायोत्सर्ग, कायगुप्ति, भेदविज्ञान, कायक्लेश, बाह्य तप आदि से शरीर को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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