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* कर्म - सिद्धान्त: बिंदु में सिंधु * ४७
प्रकार हैं- मनोयोग और काययोग। आगे कर्मविज्ञान ने इन सबके लक्षण और प्रकार बताकर स्वरूप का • विश्लेषण किया है। मनोयोग के चार, वचनयोग के चार एवं काययोग के सात प्रकार बताकर उनका विशद विवेचन किया गया है। वैसे अध्यवसाय स्थान असंख्यात और अनन्त तक होने से तीनों योग अनन्त प्रकार तक के हो सकते हैं। इसलिए मुमुक्षु जीव को कर्मों के आस्रव से बचने के लिए योगों के निरोध करने का अनवरत अप्रमत्त रहकर पुरुषार्थ करना चाहिए।
पुण्य और पाप : आनव के रूप में
पूर्व निबन्ध में आन के रूप बताये गये थे - शुभ आनव और अशुभ आम्रव। इसे जैनधर्म ने ही नहीं, सभी आस्तिक दर्शनों और धर्मों ने पुण्य और पाप के रूप में अभिहित किया है। परन्तु पुण्य और पाप के लक्षण फल और उसके उपायों, प्रकारों के विषय में जितना जैन- कर्मविज्ञान ने स्पष्ट किया है,
उतना अन्य दर्शनों और धर्मों ने नहीं । संक्षेप में, शुभ परिणामों से युक्त त्रिविधयोग पुण्य है, अशुभ परिणामों से युक्त पाप पुण्यास्रव पापास्रव के विविध कारणों का उल्लेख भी विविध आध्यात्मिक ग्रन्थों के आधार पर किया गया है। वस्तुतः पुण्य-पाप वस्तु या क्रिया के आधार पर नहीं, कर्त्ता के शुभ या अशुभ परिणामों के आधार पर मुख्यतया होता है। जैनदर्शन पुण्य-पापकर्म के शुभाशुभत्व का निर्णय निश्चयदृष्टि सेतो कर्त्ता के आशय परिणाम या भावों के आधार पर करता है, किन्तु व्यवहारदृष्टि से कहीं कर्म के अच्छे-बुरे या मंगल- अमंगल के रूप में तथा कहीं राग की प्रशस्तता - अप्रशस्तता के आधार पर भी करता है। प्रशस्तराग के कारण परार्थ प्रवृत्ति या परोपकारवृत्ति का उदय होने से लोकमंगलकारी या समाजकल्याणकारी अन्नदानादि नवविध शुभ प्रवृत्तियों के रूप में कृतकारित और अनुमोदित रूप (शुभ) कर्म का उपार्जन किया जाता है। व्यक्ति को पुण्यानव का फल सुखरूप और पापास्रव का फल दुःखरूप मिलता है, फलतः पुण्य के फलस्वरूप उसका उत्थान के मार्ग पर और पाप के फलस्वरूप पतन के मार्ग पर चढ़ जाना सम्भव है। किन्तु एक बात निश्चित है कि हिंसा, असत्य आदि पापकर्मों से जुटाए हुए हैं। सुख-साधनों से तब तक पुण्यलाभ नहीं मिल सकता, जब तक व्यक्ति अपनी भूमिका में हिंसादि पापों को छोड़े नहीं। कई लोग धन प्राप्ति, सुखोपभोग साधनों की प्रचुरता आदि को भ्रान्तिवश पुण्यफल तथा उसकी इतिश्री मानकर वास्तविक पुण्यकर्म से विरत हो जाते हैं, कई तो बेधड़क पापकर्म में रत हो जाते हैं । किन्तु पुण्य और पाप दोनों के स्वरूप, कार्य और फल में महान् अन्तर है। दोनों में से एक का चुनाव करना पड़े पुण्य का ही चुनाव करना चाहिए । फिर भी मुमुक्षु को यह ध्यान रखना है कि वह संसार- यात्रा में भले ही पुण्य का आश्रय ले, मोक्ष-यात्रा में दोनों का त्याग करने का पराक्रम करे।
पुण्य
पुण्य कब और कहाँ तक उपादेय या हेय ?
पुण्य की हेयता और उपादेयता का निरूपण करते हुए कर्मविज्ञान ने बताया कि इस संसाररूपी - महारण्य में चार प्रकार के महायात्री हैं। पापमय- पुण्यमय आनवों के भयंकर वन में भयंकरता और रमणीयता दोनों ही प्रकार के दृश्यों और संयोगों का स्पर्श करता हुआ भी जो इनमें आसक्त, आकर्षित लिप्त न होकर शुद्धोपयोग की भूमिका पर आरूढ़ रहता है, ऐसे वीतराग परमात्मा पुण्य और पाप दोनों को हेय समझकर छोड़ देते हैं या स्वतः छूट जाते हैं।
दूसरे प्रकार का संसार महायात्री कषाय और राग-द्वेषादि का पूर्णतः त्याग करने में समर्थ नहीं है, वह भयंकर पापपूर्ण दृश्यों-संयोगों को तो सर्वथा हेय समझकर छोड़ देता है, किन्तु संसार महारण्य के पार करने में उसे सहायक (मानव-साधक) के लिए महामानव पूर्वोक्त प्रकार के रमणीयतापूर्ण पुण्यपथ के दृश्यों और संयोगों में भी वह लिप्त व आसक्त नहीं होता। वह पुण्यपथ को हेय समझता हुआ भी संसार - महारण्य को पार करने में सहायक मानकर कथंचित् उपादेय मानता है, किन्तु अंतिम मंजिल आ जाने पर उक्त पुण्यपथ को भी सदा के लिए छोड़ देता है। ऐसा महायात्री है-सविकल्प मन्दकषायी मुनि ।
तीसरे प्रकार का महायात्री है - श्रावकधर्मी गृहस्थ । वह अशुभ योग को सर्वथा छोड़कर अपनी आत्मिक दुर्बलता, प्रमाद एवं मोहाधिक्य के कारण पुण्यपथ को हेय समझता हुआ भी छोड़ नहीं पाता। इसलिए इस तीसरे श्रावकव्रती यात्री के लिए व्रताचरणादि सविकल्प पुण्यपथ तथा पुण्य के दृश्य और कार्य शुद्धोपयोग . को लक्ष्य में रखते हुए अभी उपादेय और सहायक तथा श्रेयस्कर भी हैं।
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