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* ३९० * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट *
अनानुगामिक-ऐसा अवधिज्ञान, जो जीव के साथ नहीं चलता।
अनाभोग-उपयोग का अभाव या असावधानी अनाभोग है। बिना देखे, बिना पूंजे उठना-बैठना आदि शारीरिक क्रिया अनाभोग क्रिया है तथा आगमों का पर्यालोचन किये बिना अज्ञान को ही श्रेयस्कर मानना अनाभोग मिथ्यात्व है। बिना सोचे-विचारे सहसा शरीर और उपकरण आदि को विभूषित करने वाला साधु अनाभोग-बकुश कहलाता है।
अनावृत-आवरण से रहित। अनात्मा-आत्मारहित शरीरादि जड़ वस्तु। अनार्य-जिसका आचरण श्रेष्ठजन-सम्मत नहीं है, जो पापाचार-परायण है, वह।
अनाम्नव-हिंसादि पंच-आम्रवों से रहित, कषाय से रहित तथा पंचमहाव्रत पंचसमिति से युक्त।
अनादि-निधन-जिसका आदि और अन्त न हो ऐसा। नवकार मंत्र का एक विशेषण।
नाहार-औदारिकादि तीन शरीरों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण न करना। अथवा निराहार (उपवासयुक्त) रहना।
अनाहारक-विग्रहगति को प्राप्त चारों गति के जीव या समुद्घातगत सयोगीकेवली, अयोगीकेवली तथा सिद्ध-परमात्मा अनाहारक हैं।
अनिकाचित-जिनका निकाचित बन्ध न हुआ हो, ऐसे कर्मप्रदेश, जिनका उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण या उदीरणा की जा सके।
अनित्य-समस्त आत्म-बाह्य पौद्गलिक वस्तु, जो विनश्वर; क्षणिक हैं; नित्य नहीं हैं।
अनित्यानप्रेक्षा-शरीर, इन्द्रियाँ आदि सब अनित्य हैं, इसका. पुनः-पुनः चिन्तन करना अनित्यभावना या अनित्यानुप्रेक्षा है।
अन्यत्वानुप्रेक्षा-शरीरादि अन्य हैं, आत्मा (आत्म-गुण) अन्य हैं, इस प्रकार दोनों की भिन्नता का बार-बार चिन्तन करना।
अनिधत्त-जिन कर्मप्रदेशों का अपकर्षण, उत्कर्षण और प्रकृति-संक्रमण किया जा सकता है और जो उदय में आता है।
अनिश्रित-अनासक्त, अप्रतिबद्ध।
अनिन्द्रिय-इन्द्रियों के समान दृष्टिगोचर न हो कर जो इन्द्रियों के कार्यों में सहायक व प्रेरक है, वह अन्तःकरणरूप मन। इन्द्रियों से युक्त होते हुए भी जो पदार्थों को इन्द्रियों से ग्रहण नहीं करते, वे अनन्तज्ञानधारक जीवन्मुक्त अरिहन्त केवली। ___ अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष-स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, अभिनिबोध (अनुमान) और तर्क से होने वाला ज्ञान अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष है। ____ अनिर्धारिम (अनशन)-पर्वत की गुफा आदि में पादप के समान निश्चेष्ट हो कर समाधिमरण प्राप्त करना अनिर्दारिम पादपोपगमन या पादोपगमन समाधिमरण है।
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