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________________ * ३८८ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * अनतिचार - प्रमाद के आत्यन्तिक अभाव से दोष न होना । अनध्यवसाय - 'यह ऐसा ही है', इस प्रकार के निश्चय का अभाव । अनन्त - अपरिसमाप्त राशि, जिसका कभी अन्त न हो। इसके आश्रित ४ भंगअनादि-अनन्त - जिसकी आदि और अन्त न हो । अनादि- सान्त - आदि न हो, पर अन्त हो । अनादिकाल से प्रवृत्त होकर भविष्य में विच्छेद को प्राप्त होने वाले कर्मबन्धादि । सादि - सान्त - जिसकी आदि भी हो और अन्त भी हो । सादि - अनन्त - जिसकी आदि तो हो, पर अन्त न हो। अनन्त चतुष्टय- केवलज्ञानी वीतराग अर्हन्तों और सिद्धों में व्यक्तरूप से और संसारी जीवों में निश्चयदृष्टि से अव्यक्तरूप से पाया जाने वाला आत्मा का निजी गुण । यथाअनन्त ज्ञान (केवलज्ञान, सर्वज्ञता ), अनन्त दर्शन ( केवलदर्शन), अनन्त अव्यांबाध - सुख ( अनाकुलतारूप अनन्त आनन्द) और अनन्त वीर्य (अनन्त आत्म-शक्ति; (वीर्यान्तरायकर्म का क्षय होने पर प्रकट होने वाला अप्रतिहत सामर्थ्य ) । अनन्तानुबन्धी कषाय- अनन्त भवों की परम्परा चालू रखने वाली कषाय । जिसके कारण अनन्त संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है, ऐसा मिथ्यात्व । यानी जिन कषायों का सम्बन्ध मिथ्यात्व से है, वे कषाय । इस कषाय का उदय होने पर सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता, यदि उत्पन्न हो गया हो तो चला जाता है। अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ - पर्वतराजि या पाषाण रेखा के समान कठिनता से नष्ट होने वाला क्रोध अनन्तानुबन्धी क्रोध है । शैल स्तम्भ के समान अत्यन्त कठोर परिणाम वाला अहंकार अनन्तानुबन्धी मान है । बाँस की जड़ के समान अतिशय कुटिलता की कारणभूत माया अनन्तानुबन्धी माया है। कृमि-राम से रँगे हुए वस्त्र के रंग के समान दीर्घकाल तक किसी भी प्रकार से न छूटने वाला लोभ अनन्तानुबन्धी लोभ है। अनन्तकाय - जिन अनन्त जीवों का एक साधारण शरीर हो । जैसे- निगोद, जमीकन्द वगैरह । अनन्तावधि-जिन-जिस ज्ञान की अवधि उत्कृष्ट अनन्त है; जो ज्ञानं अनन्त वस्तुओं को विषय करता है। ऐसा ज्ञान जिन कर्म-विजेताओं ( जिनेन्द्रों) के होता है, वे अनन्तावधि-जिन कहलाते हैं। अनवद्य - निरवद्य, निष्पाप, सावद्ययोग से रहित, निर्दोष । अनर्थक्रिया-प्रयोजनरहित क्रिया । अनर्थदण्ड- बिना प्रयोजन के की जाने वाली हिंसादि-पाप-संचयिनी क्रिया । श्रावक का आठवाँ अनर्थदण्डविरमणव्रत भी है। अनपवर्तन-पूर्व-जन्मबद्ध कर्म की स्थिति का ह्रास न हो कर उतने ही स्थितिरूप कर्म का अनुभव करना। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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