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________________ * पारिभाषिक शब्द - कोष * ३८७ अध्यास - मिथ्याज्ञान । जो गुण जिसमें नहीं है, उसका आरोपण करना । जैसे देहाध्यासं। अध्याहार-जो पद मूल में नहीं है, उसका अर्थानुसार ऊपर से ले आना। अध्यात्म-समस्त विकल्पों से रहित हो कर आत्मा में ही अवस्थित होना। मोहरहित हो कर एकाग्रचित्त से आत्मा को अधिकृत करके की जाने वाली समस्त प्रवृत्तियाँ | अध्यात्मविद्या- आत्मा-विषयक ज्ञान, ऐसी विद्या, जिससे संकल्प-विकल्परहित निर्मल, अन्तरंग हो । अध्यात्मयोग - मन को विषयों से मोड़ कर आत्मा में जोड़ना । अध्यात्मशास्त्र-आत्मा, परमात्मा का स्वरूप समझाने वाला या आत्मा को परमात्मपद या मोक्ष-प्राप्ति का उपाय बताने वाला शास्त्र । अध्रुव - मतिज्ञान का एक भेद । अध्रुवबन्ध-बन्ध के कारणों का सद्भाव होने पर भी जिस कर्म - प्रकृति का कभी बन्ध होता है, कभी नहीं होता । अध्रुवबन्धिनी-बन्ध के कारणों के होने पर भी जो कर्मप्रकृति कदाचित् बँधती है, कदाचित् नहीं बँधती, वह । अध्रुवोदया - अपने उदयकाल के अन्त (व्युच्छित्ति) तक जिस प्रकृति का उदय लगातार ( अविच्छिन्न) नहीं रहता । कभी उदय होता है, कभी नहीं होता । : उदय-व्युच्छेद- काल तक में जिसके उदय का नियम न हो, विच्छेद हो जाने पर भी जिसका उदय पुनः सम्भव हो। जैसे-सातावेदनीयादि । अध्रुवसत्ताकी-मिथ्यात्व-दशा में जिस कर्मप्रकृति की सत्ता का नियम नहीं होता, यानी कभी सत्ता में हो, और कभी सत्ता में न भी हो, वह । अनक्षरश्रुत - बिना अक्षर का श्रुत, यथा - उच्छ्वसित, निःश्वसित, निष्ठ्युत ( थूक ), काफित (छींक), अव्यक्त शब्द और संकेत । अनगार-महाव्रती श्रमण, जिनका अपना कोई अगार (घर) नहीं होता । अनगारधर्म- पंचमहाव्रतों का तीन करण, तीन योग से पालन, पाँच समिति, तीन गुप्ति, दशविध श्रमणधर्म आदि का पालन जिसमें हो तथा जो २७ गुणों से युक्त हो, वह । अनंगक्रीड़ा-श्रावक के चतुर्थ अणुव्रत का एक अतिचार । काम सेवन के अंगों के अतिरिक्त अंगों से कामक्रीड़ा करना अनंगक्रीड़ा है। अनंगप्रविष्ट - जो आगम-साहित्य स्थविरों द्वारा रचित है। वन्दन, अनंगश्रुत-धवलानुसार-सामायिक, चतुर्विंशति-स्तव, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्प - व्यवहार आदि १४ प्रकार के अनंगश्रुत हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only प्रतिक्रमण, www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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