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________________ * ३८६ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * अदेव - जिनमें अरिहन्त देव के लक्षण न हों। अदुष्ट - जो दोषदूषित न हो या जो दुष्ट न हो, वह । अद्वैतवाद - वेदान्तदर्शनमान्य सिद्धान्त । अधर्म - जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस की सिद्धि न हो; अथवा मिथ्यादर्शन से युक्त ज्ञान व चारित्र का आत्म-परिणाम । अधर्मास्तिकाय-जीवों और पुद्गलों की स्थिति (ठहरने) में सहायक द्रव्य । अधर्मदान-दुर्जनों एवं दुर्व्यसनियों एवं पापियों को पापवृद्धि के लिए दिया गया दान | अधिकरण- जीव और अजीव के प्रयोजन ( हिंसादिभाव ) का आश्रय, साधन या उपकरण। किसी वस्तु या सम्यक्त्व का आधार । अधिगम - जिससे जीवादि पदार्थ जाने जायें, ऐसा ज्ञान । अधिकरण क्रिया-हिंसा के उपकरणों को ग्रहण करना । अधिगमज सम्यग्दर्शन-परोपदेशपूर्वक जीवादि तत्त्वों के निश्चय से जो सम्यक्त्व उत्पन्न हो । उसका दूसरा नाम अधिगम है। अधःप्रवृत्तकरण - वे परिणाम, जो अधस्तन समयवर्ती परिणाम, उपरितन परिवर्ती परिणामों के साथ कदाचित् समानता रखते हैं। इसका अपरनाम 'यथाप्रवृत्तकरण' भी है। यह परिणाम अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में पाया जाता है। अधःप्रवृत्तकरण-विशुद्धि- प्रथम समय के योग्य अधःप्रवृत्त परिणामों की अपेक्षा द्वितीय समय के योग्य परिणाम अनन्तगुणे विशुद्ध होते हैं। इनकी अपेक्षा तृतीय समय योग्य परिणाम अनन्तगुणे विशुद्ध होते हैं। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त के समय प्रमाण में उन परिणामों में समयोत्तर-क्रम से अनन्तगुणी विशुद्धि को अधःप्रवृत्तकरण-विशुद्धि कहते हैं। अधिष्ठाता-नियंता। इन्द्रियों का अधिष्ठायक देव । उचित-अनुचित कार्य-पर्यवेक्षक। अधोगति–दुर्गति। नरकादिगति । अधोलोक-पुरुषाकार लोक में (इस पृथ्वी के ) नीचे का भाग, जो त्रास - सदृश अध्ययन- जो पठन चित्त को शुभ अध्यात्म में लगाता है, जिसके पठन-पाठन से चित्तवृत्ति निर्मल होकर तत्त्वबोध, संयम और मोक्ष - प्राप्ति की दिशा में प्रवृत्त होती है । अभ्यास। अध्याय । Jain Education International है। अध्यवसाय-मनोभाव, स्थितिबन्ध के कारणभूत कषायजन्य आत्म-परिणाम । ये तीन प्रकार के होते हैं - शुभ ( प्रशस्तरागयुक्त), अशुभ ( अप्रशस्तरागादियुक्त) और शुद्ध ( रागादिरहित ज्ञाताद्रष्टाभावयुक्त) परिणाम | निश्चय करना, संकल्प करना। इसे अध्यवसान भी कहते हैं । अध्यवसाय-स्थान-जीवों के परिणामों के अनुसार अध्यवसायों के असंख्य स्थान। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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