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* पारिभाषिक शब्द-कोष * ३८३ *
अग्रबीज-जिस वनस्पति में बीज पहले ही उत्पन्न हो जाता है, या जिसकी उत्पत्ति में उसका अग्रभाग ही कारण होता है। जैसे-आम आदि।
अज्ञान-मिथ्याज्ञान, दूषितज्ञान,भ्या संशय, विभ्रम और विमोह से युक्त ज्ञान। अथवा संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से युक्त ज्ञान।
अज्ञान-परीषह-जय-यह अज्ञ है, पशु है, इस प्रकार के तिरस्कार-वचन सुन कर भी समभाव से अज्ञानता के कष्ट को सहना, प्रतिक्रिया न करना।
अज्ञानमिथ्यात्व-जो हिताहित की परीक्षा से रहित हो, ऐसी दृष्टि। अज्ञानरूप मध्यादर्शन से युक्त अथवा मिथ्यात्वभाव-विशिष्ट ज्ञान अज्ञानमिथ्यात्व है।
अज्ञानवाद-अज्ञान (न जानना) ही श्रेयस्कर है, ऐसा मूढ़तापूर्वक एकान्तरूप से मानने पाला एक मिथ्यात्वगृहीतवाद, अथवा जिनका ज्ञान कुत्सित है या मिथ्या है, उनका मत।। ___ अंग-जैनागमों का प्रमुख भाग, जिसके अर्थ-प्ररूपक तीर्थंकर तथा सूत्र- रचयिता गणधर होते हैं।
अंग-प्रविष्ट-तीर्थंकर के द्वारा प्ररूपित अर्थ की गणधरों द्वारा जिन आचारांग आदि शास्त्रों के रूप में अंगशास्त्ररचना की जाती है, वे अंगप्रविष्ट हैं। ये गणिपिटक भी कहलाते हैं।
अंगबाह्य-गणधरों के शिष्य-प्रशिष्यादि आरातीय पूर्वधर आचार्यों के द्वारा रचित शास्त्र।
अंगार-आहार से सम्बन्धित परिभोगैषणा-सम्बन्धी दोष।
अंगोपांग नामकर्म-जिस कर्म के उदय से हाथ, पैर, सिर आदि अंगों और नासिका आदि उपांगों की निष्पत्ति होती है।
अघातिकर्म-जो सीधे आत्म-गुणों की घात न करके शरीर-सम्बद्ध इष्टानिष्ट भौतिक पदार्थों की उपलब्धि-अनुपलब्धि में कारण हों। वे चार हैं-वेदनीय, आयु, नाम और गोत्रकर्म।
अंचल-पर्वत, परब्रह्म, सिद्धगति का विशेषण, आत्मा। अचलभ्राता-भगवान् महावीर का नौवाँ गणधर।
अचक्षुदर्शन-चक्षुरिन्द्रिय के अतिरिक्त शेष चार इन्द्रियों और मन से होने वाला सामान्य प्रतिभास या अवलोकन (दर्शन)। अचक्षुदर्शनावरण (कर्म)-अचक्षुदर्शन को आवृत करने वाला कर्म। अचित्त-प्रासुक, निर्जीव, अचेतन। अचित्त परिग्रह-रत्न, वस्त्र, सोना, चाँदी आदि का ममत्वपूर्वक ग्रहण या संग्रह करना। अचेतन-जड़, चेतनारहित, निर्जीव।
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