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* ३८२ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट *
अकुशल मनोनिरोध- आर्त्तध्यान आदि से युक्त मन का निग्रह करना, या पापासक्त मन का निरोध करना ।
अकुतोभय - अभय, या जिसे किसी से भी भय न हो, अथवा भयमोहनीय कर्म से रहित क्षीणमोही केवली ।
अक्ष- जीव, आत्मा या इन्द्रिय ।
अक्षय- जिसका कभी नाश न हो, शाश्वत हो वह । सिद्धगति-स्थान का विशेषण । अक्षय स्थिति - आयुकर्म के क्षय से होने वाली अजर-अमर स्थिति । -
अक्षर (श्रुत) - श्रुतज्ञान का एक भेद, वर्ण (स्वर-व्यंजनात्मक)।
अक्षिप्र - मतिज्ञान का एक भेद ।
अगमिक श्रुतश्रुतज्ञान का एक भेद ।
अगर्हित—अनिन्दित, शुद्ध ।
अगार (अगारी = आगारी)- छूट (आगार) रखना । अणुव्रती गृहस्थ ।
अगाढ- सम्यग्दर्शन का एक दोष, जिसके कारण सम्यक्त्व में दृढ़ता न रहे।
अगुरुलघु नामकर्म - नामकर्म का एक भेद, जिसके उदय से जीव अत्यन्त भारी भी नहीं और अत्यन्त हल्का भी नहीं, ऐसा शरीर प्राप्त करता है। अपने शरीर के अनुपात में गुरुता और लघुता का न होना ।
अगुरुलघु गुण-गोत्रकर्म के क्षय से सिद्ध-परमात्मा में प्रकट होने वाला गुण, जिसके प्रभाव से उच्चता-नीचता (गुरुता - लघुता) का अभाव होता है । अथवा द्रव्य की वह शक्ति या गुण, जिसकी वजह से सब यथारूप बना रहे।
अगृहीत मिथ्यात्व - एकेन्द्रियादि घोर अज्ञान तिमिर में पड़े जीवों का मिथ्यात्व । अथवा परोपदेश के बिना अनादि परम्परा से प्रवर्तमान अतत्त्व - श्रद्धानरूप परिणति ।
अग्निकाय - जिन जीवों का शरीर अग्निरूप है, वे अग्निकाय या अग्निकायिक या तेजस्कायिक कहलाते हैं।
अग्निकुमार-भवनपति देवों की एक जाति, जिनके अंग अग्नि के समान स्वर्णादि आभूषणों से चमकते हैं।
अग्निभूति - इन्द्रभूति गौतम गणधर के दूसरे नम्बर के सहोदर भ्राता भगवान् महावीर गण (संघ) के द्वितीय गणधर ।
अगीतार्थ-आचारांगादि अंगशास्त्रों तथा छेदसूत्रों का विधिवत् अपाठी ।
अगोचर - इन्द्रियों से अग्राह्य ।
अग्र (कर्म) - प्रधान कर्म (मोहनीय कर्म का विशेषण ) ।
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