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________________ * ३७६ * कर्मविज्ञान : परिशिष्ट * पहचान के लिए बारह गुणों का प्रतिपादन ९२. आप्त-परीक्षा में तीर्थंकरत्व की परीक्षा के लिए आध्यात्मिक गुण ही उपादेय ९२, वास्तविक तीर्थंकर अष्टादश दोषों से रहित होने पर ही ९४. जैनधर्म ईश्वरकर्तृत्ववादी या अवतारवादी नहीं है : क्यों और कैसे? ९५. वैदिक एकेश्वरवाद और जैनदृष्टि से यथार्थ एकेश्वरवाद ९५, जैनमान्य तीर्थंकर अवतारवाद का नहीं, उत्तरवाद का प्रतीक है ९६. तीर्थंकर बनने से पूर्व और पश्चात तीर्थंकर नामकर्मबन्ध, उदय और भावतीर्थंकर तक का क्रम? ९७. तीर्थंकरपद कव प्राप्त होता है, कब नहीं? ९८, किस भव से तीर्थकर होने का पुरुषार्थ प्रारम्भ हुआ? ९९. तीर्थंकर नामकर्म अनिकाचित रूप से बँध जाने पर सफलता नहीं मिलती ९९. निकाचित रूप से बँध जाने पर तीसरे भव में अवश्य तीर्थंकरत्व-प्राप्ति १00, निकाचित रूप तीर्थकरत्व-उपार्जन की अर्हताएँ १०१. निकाचन तीर्थंकर नामकर्मबन्ध के बीस मूलाधारं १०२-१०३। (४) विदेह-मुक्त सिद्ध-परमात्मा : स्वरूप, प्राप्ति, उपाय पृष्ठ १०४ से १४३ तक अरिहन्त और सिद्ध दोनों देवाधिदेव परमात्मा कोटि में १0४, अरिहन्त और सिद्ध में मौलिक अन्तर १०४. सर्वकर्मों से मुक्त होने की प्रक्रिया १०४, अकर्मा होने के बाद अयोगी, शैलेशी और सिद्ध अवस्था का क्रम १०५, सिद्ध-परमात्मा : कैसे हैं, कैसे नहीं? १०६, शुद्ध आत्मा (सिद्ध-परमात्मा) का स्वरूप १०७, शवादि गुणों से युक्त सिद्धगति को सम्प्राप्त : सिद्ध-परमात्मा १०७, सिद्ध-परमात्मा का आत्मिक स्वरूप १०८, मुक्तात्मा : कहाँ रुकते हैं, कहाँ स्थिर होते हैं और क्यों? १०८, कर्मबन्धन छूटते ही चार बातें घटित होती हैं १०९. मुक्तात्मा के शीघ्र ऊर्ध्वगमन के सम्बन्ध में कुछ प्रश्नोत्तर १०९. सर्वकर्ममुक्त जीवों का ऊर्ध्वागमन : छह कारणों से १०९, मुक्तात्मा लोक के अग्र भाग में ही क्यों स्थित हो जाते हैं? १११, सिद्धगति की पहचान १११, सिद्धशिला : पहचान, वारह नाम, सिद्धों का अवस्थान ११२. एक स्थान में अनेक सिद्ध कैसे रहते हैं ? ११२, सिद्ध-मुक्त आत्माओं को अनन्त ज्ञान : कैसे होता है. कैसे नहीं? ११३. सिद्धत्व-प्राप्ति से पूर्व दैहिक अर्हताएँ ११४, अनेक सिद्धों की अपेक्षा सिद्ध अनादि-अनन्त, एक सिद्ध की अपेक्षा सादि-अनन्त ११५, मुक्त आत्मा न तो कर्मवद्ध होता है और न पुनः संसार में आता है ११६, मुक्तात्मा का संसार में पुनरागमन के लिए विचित्र तर्क और खण्डन १११. ईश्वग्कर्तृत्ववादियों की मान्यता के अनुसार भी अनन्त संसार को कभो अन्त नहीं होता ११७. सर्वकमों से मुक्त होने वाले साधकों की चार श्रेणियाँ ११८, मोक्ष में मुक्त आत्माएँ अनन्त आत्म:मुखों में लीन रहती हैं ११८. परिपूर्ण सर्वकर्ममुक्त आत्माओं के पूर्ण आध्यात्मिक विकास का क्रम ऐसा ही क्यों? ११९. सिद्ध-परमात्मा की मौलिक पहचान : आट आत्मिक गुणों द्वारा १२१, अष्ट कर्मों के पूर्ण क्षय से सिद्ध-परमात्मा में कौन-कौन-से आठ गुण प्रकट होते हैं ? १२४, सिद्ध भगवान में ये आट गुण गुणस्थान क्रम से कैसे-कैसे प्रगट होते हैं ? १२५, सिद्ध-परमात्मा में प्रादुर्भूत होने वाले इकत्तीस गुणों का विवरण १२६. सिद्धि (सर्वकर्ममुक्ति) के विषय में जैनधर्म की उदारता १२७, मोक्ष-प्राप्ति के विषय में जैनधर्म की उदारता : पन्द्रह प्रकार से सिद्ध हो सकता है १२९. विभिन्न अपेक्षाओं से सिद्धों की गणना १३३. जैनधर्म ईश्वरवादी है, किन्तु ईश्वरकर्तृत्ववादी या एकेश्वरवादी नहीं है १३४. सभी आत्माओं में ईश्वरत्व : किन्तु पूर्ण प्रकट अर्ध प्रकट, यत्किंचित् प्रकट १३४. सिद्ध ईश्वर के स्वरूप में कोई भेद नहीं १३५. जैनमान्य और वैदिकमान्य ईश्वर जन्म से ही अजन्मा नहीं, पुरुषार्थ से ही होता है १३५, परमैश्वर्य-सम्पन्नता समस्त सिद्ध-मुक्त ईश्वरों में एक समान, सभी समान कोटि के हैं १३६, मुक्तात्मा न किसी दूसरी शक्तियों में विलीन होते हैं, न किसी के अंश होते हैं १३६. सर्वकर्ममुक्त सिद्ध ईश्वर जगत् का कर्ता-हता नहीं हो सकता : क्यों और कैसे? १३७, संसार की समस्त आत्माएँ ईश्वर हैं: वे अपनी शुभाशुभ कर्मसृष्टि का स्वयं सूजन करती हैं १३८. सिद्ध-मुक्त परमात्मा के स्मरण-नमन-उपासनादि से क्या लाभ? १३९. बहिगत्मा और अन्तरात्मा द्वारा परमात्मा की उपासनादि से सर्वकर्ममुक्ति कैसे? १३९. सिद्ध या अगिहन्न परमात्मा के वन्दनादि से ध्येय तक कैसे पहुँच सकता है? १४०, वीतराग प्रभु को ध्येय बनाने वाला ध्याता ध्यान-बन से शीघ्र कर्ममुक्ति कर सकता है १४0, सिद्ध-परमात्मा के भावमानिध्य से अनेक लाभ १.४१. परमात्मा को आज्ञाराधना से और विराधना से अपना ही लाभ. अपनी ही हानि १४१. वीतराग के ध्यान से सुगहित काममक्त तथा साग के ध्यान से गगादि विभावयुक्त १४१. वीतराग के ध्यान व सानिध्य से आत्मा में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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