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* विषय सूची: नौवाँ भाग * ३७५ *
के लिये ऊर्ध्वगमन कैसे और किस प्रकार करती है ? ३३, शरीर-कर्मादि छूटने के साथ ही तीन घटनाएँ घटित होती हैं ३४, शरीर छूटने के बाद मुक्त आत्मा का ऊर्ध्वगमन कैसे और क्यों होता है ? ३४, सर्वकर्ममुक्त सिद्ध आत्मा का ऊर्ध्वगमन कहाँ तक होता है ? ३४, सिद्धस्थान को पाने के बाद आत्म-दशा कैसी होती है ? ३५ ।
(२) अरिहन्त : आवश्यकता, स्वरूप, प्रकार, अर्हता प्राप्त्युपाय
पृष्ठ ३६ से ६० तक
अरिहन्त की आवश्यकता : क्यों और किसलिए ? ३६, अपनी शक्तियों से अपरिचित मनुष्यों को अरिहन्त से प्रेरणा ३७, अरिहन्त परमात्मा की आराधनादि करने की क्या आवश्यकता ? ३७, अरिहन्त की मूक प्रेरणा : अपनी अक्षय शक्तियों को जानो ३८, संसारी आत्मा और परमात्मा में अन्तर और उसके निवारण का उपाय ३८, सर्वकर्ममुक्ति का सक्रिय ज्ञान अरिहन्त के द्वारा पथ-प्रदर्शन से होता है ३९, अरिहन्त परमात्मा साधक को कैसे गति या प्राण-शक्ति देते हैं ? ४०, अरिहन्त कुछ देते-लेते नहीं, तब उनकी आराधना से क्या लाभ? ४०, अरिहन्त की आराधना अपनी ही, अपने आत्म-स्वरूप की ही आराधना है ४०, आराधक को आराध्य से माँगने से नहीं मिलता, स्वतः मिलता है ४१ वीतराग अरिहन्त किसी कार्य के कर्त्ता या कारण नहीं होते ४१, वीतराग परमात्मा अपनी निन्दा - प्रशंसा से रुष्ट या तुष्ट नहीं होते ४२, अरिहन्त की आराधना अपनी आत्मिक पूर्णता की आराधना चार चरणों में ४३, अरिहन्त का ध्यान अपने आत्म-स्वरूप का अपना ध्यान है ४३, बाह्य अरिहन्त को आन्तरिक कैसे बनाया जा सकता है ? ४४, अरिहन्त दर्शन ही वस्तुतः आत्म-दर्शन है : क्यों और कैसे ? ४५, ध्यान से अरिहन्त की विशुद्ध चेतना
साधक की चेतना का प्रवेश ४७, भक्ति और अनुभूति : अरिहन्त की आराधना के दो सिरे ४८, वीतराग अरिहन्त परमात्मा के ध्यान से ध्याता भी तड़प बन जाता है ४८, वीतराग अरिहन्त के ध्यान या सान्निध्य से वीतरागता के संस्कार पैदा होते हैं ५०, अरिहन्त का विराट् रूप और स्वरूप ५१, अरिहन्त कौन है, क्या है ? इसे प्रथम स्थान क्यों ? ५१, अरिहन्त का विभिन्न दृष्टियों से लक्षण ५२, ' अरहन्त' के लक्षण : विभिन्न दृष्टियों से ५३, अरिहन्त के अन्य अनेक रूप और स्वरूप ५४ तीर्थंकर अरिहन्त और सामान्यकेवली अरिहन्त में समानता ५५, केवली का स्वरूप और प्रकार ५७, तीर्थंकर केवली और सामान्य केवली दोनों में पाये जाने वाले बारह विशिष्ट गुण ५९, अरिहन्त भगवन्तों में नहीं पाये जाने वाले अठारह दोष ५९-६० ।
पृष्ठ ६१ से १०३ तक
(३) विशिष्ट अरिहन्त तीर्थंकर : स्वरूप, विशेषता, प्राप्ति हेतु
७७,
विशिष्ट पुण्यातिशययुक्त महापुरुष ही तीर्थंकर होते हैं ६१, तीर्थंकर और सामान्य अरिहन्त (केवली ) में अन्तर ६१, तीर्थंकर अरिहन्त का लक्षण ६४, तीर्थ और तीर्थंकर : स्वरूप और कार्य ६५, तीर्थंकर - अरिहन्तों का महिमासूचक लक्षण ६६, तीर्थंकरों की परमोपकारिता प्रकटकारिणी कतिपय विशेषताएँ ६८, बीस और एक सौ सत्तर तीर्थंकर : कहाँ-कहाँ, कब और कैसे-कैसे ? ६९, तीर्थंकर भगवान के स्व-पर-उपकारक जीवन के विशेष गुण ७४, ऐसे तीर्थंकर जिन या जिनेन्द्र भी कहलाते हैं : क्यों और कैसे ?-७५, , तीर्थंकर के लिए प्रयुक्त 'जिन' शब्द का रहस्य ७६, महतो महायान् उपकारी तीर्थंकर अरहन्त देव तीर्थंकर देवाधिदेव क्यों कहलाते हैं ? ७८, अन्य देवों से देवाधिदेव वढ़कर क्यों होते हैं ? ७८, तीर्थंकर बनने से पूर्व उनमें वीतरागता और सर्वज्ञता का होना जरूरी है ७८, तीर्थंकर का अर्हन्त नाम क्यों सार्थक है ? ७९, अर्हन्त भगवान का पूजातिशय: क्या और किस रूप में ? ८०, ज्ञानातिशय क्या और किस रूप में ? : उसकी अर्हता कब ? ८१. तीर्थंकर की सर्वज्ञता पूर्वकृत उत्कृष्ट पुण्यवश आत्मौपम्यभाव की चरितार्थता ८१, सर्वज्ञता की सार्थकता का व्यावहारिक फलितार्थ ८२, तीर्थंकर की प्रत्येक प्रवृत्ति पुण्यफलस्वरूप सहजभाव से होती है ८३, वचनातिशय-प्राप्ति: क्यों, किस कारण से और कितने प्रकार से ? ८३, तीर्थंकर की वचनातिशय की उपलब्धि के पैंतीस प्रकार ८४, अपायापगमातिशय क्या, कैसे और किस प्रकार से ? ८८, चौंतीस अतिशयों के नाम और संक्षिप्त अर्थ ८९, अर्हन्त तीर्थंकर में पाये जाने वाले चारों अतिशय अन्य लोगों में भी एक चिन्तन ९०, वचनातिशय में भी भगवान महावीर के समकक्ष तीर्थंकर ९१, तीर्थंकर की परीक्षा चार अतिशयों के आधार पर करने में कठिनाई ९१, तीर्थंकरों की अलग
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