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________________ खण्ड १२ कर्मविज्ञान : नौवाँ भाग सर्वकर्ममुक्त परमात्मपद : स्वरूप, Jain Education International कुल पृष्ठ १ से २७४ तक अर्हता और प्राप्त्युपाय निबन्ध ८ पृष्ठ १ २७४ तक (१) मोक्ष के निकटवर्ती सोपान पृष्ठ १ से ३५ तव १, विशुद्ध समता द्वार : शत्रु और मित्र प i : दशम सोपान-उच्चकोटि की विशुद्ध एवं पूर्ण समता की प्रतीति के चार चिह्न सिद्धि के तट पर पहुँची हुई साधना नौका २, पूर्ण समदर्शिता का प्रथम चिह्न समदर्शिता २, समभाव की पराकाष्ठा पर पहुँची हुई साधकदशा ३, भगवान महावीर के जीवन में पू समदर्शिता की पराकाष्ठा ३, पूर्ण समदर्शिता - प्राप्ति का द्वितीय चिह्न : मान-अपमान में पूर्ण समता ४ समभाव की उत्कृष्ट साधना का उपाय ५ पूर्ण समदर्शिता का तृतीय चिह्न जीवित और मरण न्यूनाधिकता का अभाव ६, पूर्ण समदर्शिता का चतुर्थ चिह्न : भव और मोक्ष के प्रति शुद्ध स्वभाववर्तिता ६ एकादशम सोपान - समता की सिद्धि के लिए पूर्ण निर्भयता का अभ्यास आवश्यक ७, एकाकी विचरण क्यों, कब और कैसे ? ८, एकाकी विचरण का रहस्यार्थ उदान ध्येय-सिद्धि ९ एकाकी विचरण किसवे लिए योग्य, किसके लिए अयोग्य ? १०, श्मशान में निवास : निर्भयता की सिद्धि के लिए आवश्यक ११ निर्जन पर्वतीय प्रदेश में वन्य क्रूर प्राणियों के सम्पर्क में दया और निर्भयता रहे ११, निर्भयता की सिद्धि वे लिए : अडोल आसन और मन में अक्षोभ आवश्यक १२, निर्भयता की सिद्धि के लिए : उन वन्य प्राणियं का समागम परम मित्र का समागम जानो १३, बारहवाँ सोपान - घोर तप, सरस अन्न, रजकण-वैमानिव ऋद्धि: इन द्वन्द्वों में मन की समता १५, घोर तपस्या इसे कहें या उसे ? १५, सरस अन्न मिलने पर संयम रखना अतिकठिन' १६, स्वादविजय : कामविजय और कामनाविजय का महत्त्वपूर्ण अंग १७, सिद्धियों के प्रलोभन पर विजय : वासनाविजय का महत्त्वपूर्ण अंग १८, समतायोगी रजकण और वैमानिक देव क ऋद्धि दोनों को समान पुद्गल माने १८, समतामयी तपः साधना का दिग्दर्शन १९, तेरहवाँ सोपानक्षपकश्रेणी पर आरोहण चारित्रमोहविजय २०, चारित्रमोह पर विजय का स्थायी फल : अपूर्वभावकरण सिद्धि २०, बारहवें गुणस्थान में पहुँचने से पहले तक के खतरे और सावधानी २१, उपशमश्रेणी में प्रविष्ट होने पर पतन अवश्यम्भावी क्यों ? २२, अपूर्वकरण की अवस्था के बाद चैतन्य प्रकाश का अतीन्द्रिय अनुभव २२, क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होने की स्थिति और उपलब्धि २३, चारित्रमोह के महासागर के मन्थन से समता (वीतरागता) सुधा प्राप्त हुई २३, क्षीणमोह होने के बाद केवलज्ञान का प्रकटीकरण २४, मोहबीज के जल जाने पर भववृक्ष के उगने की सम्भावना नहीं २४, अज्ञान व मोह के आत्यन्तिक विनाश से आत्मा को अनन्त चतुष्टय की प्राप्ति २४, इस गुणस्थान में चार घातिकर्म तो एक साथ ही छूट जाते हैं २५, चौदहवाँ सोपान-आत्म-विशुद्धिपूर्वक अनन्त ज्ञान-दर्शन आयुष्यपूर्ण होने तक चार अघातिकर्म की अवशिष्टता २५, कालदृष्टि से सबसे महत्त्वपूर्ण है तेरहवें गुणस्थान की भूमिका २६, वेदनीयादि चार अघातिकर्म : जली हुई रस्सी के समान अकिंचित्कर २७, चार घातिकर्मों की तरह चार अघातिकर्म नामशेष क्यों नहीं हुए? २७, चार अघातिकर्मों के टिके रहने से विशिष्ट लाभ २७. इस उच्चतर भूमिका में साधक की देहातीत दशा २८, यथाख्यातचारित्र - प्राप्त महापुरुष का स्वरूप और उसकी दो कोटियाँ २९, शरीरादि के साथ स्वाभाविक क्रियाएँ होती हैं तथा नया देह धारण करने की योग्यता समाप्त २९, पन्द्रहवाँ सोपानसर्वकर्ममुक्त सिद्ध-बुद्ध होने की स्थिति, गति और प्रक्रिया ३०, अयोगीकेवली महापुरुष के चार अघातिकर्म कैसे छूटते हैं ? ३०, एकमात्र आत्मा ही आत्मा होती है सर्वत्र ३२, तेरहवें से चौदहवें गुणस्थान की . शेष चार अघातिकर्मों का क्षय होने के पश्चात् ऊर्ध्वगमन ३३, शुद्ध सिद्ध आत्मा सिद्धालय विशेषता ३३, For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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