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________________ * विषय-सूची : आठवाँ भाग * ३७३ * सम्यग्दृष्टि के पाँच लक्षण ४६७, निर्ग्रन्थता की सिद्धि के लिए वृत्तियों का ऊर्ध्वमुखीकरण ४६८, तृतीय सोपान-शरीर के प्रति किंचित् भी मूर्छा : निर्ग्रन्थता में बाधक ४६८, चतुर्थ सोपान-दर्शनमोह का सागर पार होने से केवल चैतन्य का बोध ४६९, दर्शनमोह दूर होने पर सम्यग्ज्ञान के विचार-विवेकरूप नेत्रद्वय खुल जाते हैं ४७0, देह से भिन्न एकमात्र चैतन्य के दर्शन कितने दुर्लभ, कितने सुलभ? ४७१, देह से भिन्न केवल चैतन्य का अनुभवात्मक ज्ञान सुदृढ़ होने पर ४७१, दृष्टिमोह दूर होने पर ही चारित्रमोह की क्षीणता सम्भव ४७१. केवल चैतन्य के ज्ञान का फल शुद्ध स्वरूप का ध्यान है ४७२, पंचम सोपान-योगत्रय में आत्म-स्थिरता ४७३, आत्म-स्थिरता यानी सतत आत्म-स्मृति या आत्म-जागृति से लाभ ४७३. आत्म-स्थिरता वाला साधक घोर उपसर्ग-परीषहों के समय भी अविचल रहता है ४७४, मुमुक्षु जीवन में आत्म-स्थिरता की आवश्यकता क्यों ? ४७४, आत्म-स्थिरता की कसौटी : परीषह और उपसर्ग ४७५, छठा सोपाननिज-स्वरूप में लीनता के लिए संयम हेतु से योगप्रवृत्ति और स्वरूपलक्षी जिनाज्ञाधीनता ४७५, आत्म-स्थिरता से आगे की भूमिका : संयम हेतु योगों की प्रवृत्ति ४७६, आत्म-स्थिरता वाले मुमुक्षु का प्रभाव और अभ्यास की परिपक्वता कब? ४७७, वैराग्य-विवेकयुक्त सम्यग्ज्ञान होने से संयम में वृद्धि व सुदृढ़ता ४७८, सागारी और अनगारी दोनों के जीवन में संयम का अमोघ प्रभाव ४७९, संयम स्वरूपलक्षी होगा, तभी उसका सुपरिणाम दिखाई देगा ४८०, संयम स्वरूपावस्थानरूप साध्य का साधन है. साध्य नहीं ४८०, स्वरूपलक्षी संयम कैसा होता है, कैसा नहीं? ४८१, छटे सोपान का उत्तरार्द्ध : स्वरूपलक्षी संयम भी जिनाज्ञाधीन है ४८२, भेद-भक्ति से अभेद-भक्ति की ओर प्रस्थान करने के लिए ४८३, निज-स्वरूपलीनता की शुद्ध प्रक्रिया का निष्कर्ष ४८४-४८५। (१८) मुक्ति के अप्रमत्तताभ्यास के सोपान पृष्ठ ४८६ से ५११ तक ___ सप्तम सोपान-अप्रमत्तता तथा अप्रतिबद्धता का अभ्यास ४८६, राग-द्वेषरहितता का तात्पर्य, अभ्यासविधि, जागृति ४८६, शब्दादि विषयों के प्रति राग-द्वेपरहितता से अलभ्य लाभ ४८७, राग-द्वेषविरहितता के लिए विरक्ति और जागृति आवश्यक ४८८, प्रमाद : साधक के सुदृढ़ जीवन भवन को प्रकम्पित करने वाला ४८९, पंच-प्रमाद : स्वरूप, विश्लेपण और विवेक ४८९, प्रमाद का प्रथम अंग : मद-या मद्य ४८९. प्रमाद का द्वितीय अंग : विषय ४९०, प्रमाद का तृतीय अंग : कषाय ४९०, प्रमाद का चतुर्थ अंग : निन्दा या निद्रा ४९१. प्रमाद का पंचम अंग-विकथा ४९१, चारों प्रकार के प्रतिबन्ध भी वीतरागता-प्राप्ति में बाधक ४९२, अप्रतिबद्ध दशा-प्राप्ति के लिए उदयाधीन विचरण ४९३, अष्टम सोपान-कपाय और नोकषायों पर विजय के लिए तैयारी ४९४, कषायों से शुद्ध आत्मा की रक्षा कैसे करें? ४९४, क्रोध के प्रति स्वभाव-रमणता का जोश कैसे रहे? ४९५, क्षपकश्रेणी पर चढ़ गया, वह अवश्य ही कपायों पर विजय प्राप्त करेगा ४९६, लोभ जीतने पर सर्वस्व जीत लिया, नहीं तो क्रोधादि मूल से क्षीण नहीं हुआ ४९६, चारों कषायों में लोभ का प्रभाव सर्वाधिक : क्यों और कैसे? ४९७, उपशमश्रेणी वाले साधक के लिए कितनी सावधानी की जरूरत ? ४९८, सूक्ष्म मान कैसे पकड़ता है, उससे छुटकारा कैसे हो? ४९९. सूक्ष्म माया कैसे पकड़ती है, उससे छुटकारा कैसे हो? ५00. सूक्ष्म लोभ की पकड़ से कैसे छूटें ? ५०१, अष्टम सोपान का उत्तरार्द्ध ५०२, एक-एक कपाय नष्ट होने की क्रमशः कसौटी कैसे होती है ? ५०२, गजसुकुमार मुनि की उपसर्ग के समय आत्म-स्थिरता ५०३, अनुकूल-प्रतिकूल मान-उपसर्ग के समय मन में दृढ़ समभाव रहे ५०३, सूक्ष्म माया नाश की प्रतीति कैसे हो, कैसे नहीं ? ५०४, माया के चार अर्थ और उन पर विजय का ज्वलन्त उदाहरण : सुदर्शन सेट का ५०४, लोभ रूप महाशत्रु पर विजय की प्रतीति कैसे हो? ५०५, प्रलोभन के दो अंग : लैंगिक और सिद्धियों का आकर्षण ५०६, प्रथम प्रलोभन पर विजय का ज्वलन्त उदाहरण : सती राजीमती का ५०६. प्रलोभन का दूसरा बड़ा अंग : निदानशल्य ५०६. निदानशल्यरूप लोभ पर हार और जीत ५०६, निदान से भौतिक विकास के साथ घोर आध्यात्मिक पतन ५०७.नवम सोपान-द्रव्य-भावमय संयमरूप पर्ण निर्ग्रन्थ-साधना की सिद्धि ५०८.निर्ग्रन्थता : आत्मा के निजी स्वाभाविक गुणों को प्रकट करने का पुरुषार्थ ५०८. क्या इन साधारण जीवों को भी नग्न या मुण्डित मान लिया जाए? ५०९-५११। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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