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________________ * ३७२ * कर्मविज्ञान : परिशिष्ट * पड़ेगा ४२0, शरीर के रहते-रहते इन सम्बन्धियों से सम्बन्ध नहीं तोड़ने पर ४२0, मृत्यु के बाद भी सम्बन्ध क्यों और कैसे रहता है? ४२0. अन्तिम सम्बन्ध-विषयक स्मृति आगामी जन्म एवं शरीर की कारण ४२१, पूर्वोक्त सांसारिक सम्बन्धियों से, सम्बन्ध विच्छेद करने में मुख्य हितायतें ४२१, संलेखना-संथारा ग्रहण करने से पूर्व क्षमापना और आत्म-शुद्धि भी अनिवार्य ४२२, संलेखना-संथारा से पूर्व जीवन-मरण की अवधि जानना भी आवश्यक ४२३, भक्त-प्रत्याख्यानइंगिणीमरण और पादपोपगमन : स्वरूप, प्रकार और विश्लेषण ४२३, सागारी संथारा : स्वरूप और प्रकार ४२४, सुदर्शन श्रमणोपासक ने सागारी संथारे का आदर्श प्रस्तुत किया ४२५, सागारी संथारे का दूसरा प्रकार : संथारा पोरंसी ४२५, यावज्जीवन अनागारी संथारा की विधि ४२६-४२९।। (१६) मोक्षप्रापक विविध अन्तःक्रियाएँ : स्वरूप, अधिकारी, योग्यता . . पृष्ठ ४३० से ४६0 तक विविध अन्तःक्रियारूपी सरिताएँ : मोक्षसागर में अवश्य विलीनता ४३०, अन्तःक्रिया का स्वरूप : लौकिक और लोकोत्तरदृष्टि से ४३१. लोकोत्तर अन्तःक्रिया और उसके चार प्रकारों का निरूपण ४३१. प्रज्ञापनासूत्रोक्त मरणार्थक अन्तःक्रिया के वर्णन का भी आशय शुभ ४३१, लौकिक अन्तःक्रिया की प्ररूपणा क्यों? ४३२, अन्तःक्रिया : स्वयं पुरुषार्थ से ही प्राप्त होती है, माँगने से नहीं ४३३, संज्ञी मनुष्यपर्याय में ही मोक्ष-प्राप्तिरूपा अन्तःक्रिया सम्भव ४३४, मोक्ष-प्राप्तिरूण अन्तःक्रिया का स्वरूप और प्राप्ति-अप्राप्ति का रहस्य ४३४, नारक और देव अपनी-अपनी पर्याय में अन्तःक्रिया क्यों नहीं कर सकते? ४३४, मनुष्यपर्याय में सर्वकर्मक्षयकर्ता ही अन्तःक्रिया करता है ४३५. देव सर्वदुःखों का अन्त नहीं कर सकते : क्यों और कैसे? ४३६, मनुष्य-भव में धर्माराधना की पूर्ण सामग्री सम्भव ४३६, धर्माराधना न करने वाले को सम्बोधि और शुभ लेश्या की प्राप्ति अति दुर्लभ ४३७, अन्तःक्रिया (सर्वकर्मों का अन्त) करने के वाद पुनः जन्म-मरणादि नहीं होता ४३७, अन्तःक्रिया करने वाले पुनः संसार में लौटकर नहीं आते ४३८, मोक्ष-प्राप्तिरूपा : अन्तःक्रिया करने वालों की अर्हताएँ ४३९. ऐसा मोक्षाभिमुख-साधक ही अन्तःक्रिया करने में सफल होता है ४३९, अन्तःक्रिया करने वाले मोक्षाभिमुख-साधक की पहचान ४४0. मोक्ष-प्रापिणी. अन्तःक्रिया करने वाले साधक के विशिष्ट गुण ४४0, छिन्न स्रोत, खेदज्ञ एवं सर्वजीवों का आलोक ही अन्तःक्रिया करने में सक्षम ४४१, वह मोक्ष या संसार के अन्त तक पहुंच जाता है ४४२, वे संसार का तथा समस्त दुःखों का अन्त कैसे कर देते हैं ? ४४२. अन्तःक्रिया करने वाले अन्तकृत् महापुरुषों के जीवन अन्तकहशा में वर्णित ४४३. प्रथम अन्तःक्रिया ४४७. दुसरी अन्तःक्रिया ४४९. गजसकमाल की अन्तःक्रिया का संक्षिप्त वर्णन ४५0, तृतीय अन्तःक्रिया ४५१, सनत्कुमार चक्रवर्ती : दीर्घकर्मा-दीर्घसंयमकाल वाला ४५१, चतुर्थ अन्तःक्रिया ४५३, सर्वकर्ममुक्त चारों अन्तःक्रियाओं में से किसी एक से हुए हैं, होंगे ४५४, कर्मविदारण में वीर साधक भी मोक्षाभिमुखी बनकर अन्तःक्रिया करते हैं ४५४, सर्वोत्तम संयम की आराधना करके कतिपय उच्च साधक अन्तःक्रिया कर लेते हैं ४५५. ये विशुद्ध आत्मा भी अन्तःक्रिया करके उच्च भूमिका पर पहुँच जाते हैं ४५५, मनुष्य के सिवाय दूसरे जीवों में भी अन्तःक्रिया की योग्यता : अनन्तरागत और परम्परागत ४५५, कौन अनन्तरागत अन्तःक्रिया करता है, कौन परम्परागत? ४५६, तीर्थंकरपद-प्राप्ति किनको होती है, किनको नहीं? ४५८, किनकी, कहाँ उत्पत्ति और क्या उपलब्धि सम्भव/असम्भव? ४५८, अनन्तरागत या परम्परागत अन्तःक्रिया करने वालों की योग्यता, क्षमता और उपलब्धि का क्रम ४५९-४६०। (१७) मुक्ति के आध्यात्मिक सोपान पृष्ठ ४६१ से ४८५ तक ___ मुक्ति की साधना के सोपान : एक चिन्तन ४६१. मुक्ति के सोपानों पर आरोहण करने की योग्यता किसमें ? ४६२. प्रथम सोपान-बाह्याभ्यन्तर निर्ग्रन्थता : सर्वसम्बन्धों के बन्धन की उच्छेदक ४६३. बन्धनों को तोड़ने के लिए ग्रन्थमुक्त होने के विवेकसूत्र ४६३. निर्ग्रन्थता के अभ्यास में विवेक करना चाहिए ४६४, बाह्य-आभ्यन्तर ग्रन्थ : स्वरूप, प्रकार और ग्रन्थों से मुक्ति का उपाय ४६४. बाह्य परिग्रह का त्याग होने पर मन में ग्रन्थों को पाने की ललक ४६५, धर्माचरणी के लिए पंच आश्रयस्थान भी बन्धनकारक न बन जाएँ ४६७, द्वितीय सोपान-सर्वभावों के प्रति उदासीनता, विरक्ति एवं निर्लिप्तता ४६७, मोक्ष के भावों से भावित Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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