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________________ * विषय-सूची : नौवाँ भाग * ३७७ * वीतरागभाव का संचार १४२, सोये हुए परमात्मभाव को जगाने का अपूर्व साधन : शुद्ध भाव में रमणता १४२. गुणों की उपलब्धि के लिए वन्दना या स्तुति १४३। (५) परमात्मपद-प्राप्ति का मूलाधार : आत्म-स्वभाव में स्थिरता पृष्ठ १४४ से १६८ तक परभाव में रमण से कर्मबन्ध और स्वभाव में रमण से कर्ममुक्ति १४४, आत्मा और परमात्मा के स्वभाव में बहुत अन्तर १४४, व्यवहारदृष्टि से परमात्मा और आत्मा का स्वभाव भिन्न-भिन्न, किन्तु निश्चयदृष्टि से समान १४४, स्वभाव में साम्य होने से ही आत्मा परमात्मा बन सकती है १४५, प्रत्येक आत्मा परमात्मस्वरूप है, विभिन्नता या अपूर्णता उसका शुद्ध स्वभाव नहीं है १४५, बहिरात्मा ही परभावों-विभावों को अपने मानकर कर्मबन्ध करता है, अन्तरात्मा नहीं १४६, सिद्ध-परमात्मा में और मेरी (शुद्ध) आत्मा में कोई अन्तर नहीं है, ऐसा विश्वास करें १४६, ऐसा मुमुक्षु भविष्य की अपेक्षा से सिद्ध-परमात्मा है १४७, आत्मा में ही परमात्मा बनने की शक्ति है, शरीरादि में नहीं १४८, ऐसी अभेद ध्रुवदृष्टि वाले को अनन्त चतुष्टय की अभिव्यक्ति की चिन्ता नहीं होती १४८, आत्मा में परमात्मा बनने की योग्यता भी है १४९, योग्यता होते हुए भी अभेद ध्रुवदृष्टि न हो, वहाँ तक परमात्मा नहीं हो सकता १५०, परभाव और विभाव : क्या हैं, किस प्रकार के हैं, क्या करते हैं ? १५१, स्वभाव की निश्चित प्रतीति कैसे हो. कब मानी जाए? १५१. स्वभाव के निर्णयकर्ता को पर-पदार्थों या विभावों से कोई आशा-आकांक्षा नहीं रहती १५२, सम्यग्दृष्टि आत्मा के मूल स्वरूप को देखता है, विकार और मलिनता को नहीं १५३, शुद्ध चैतन्यमूर्ति आत्मा में कर्मरज प्रविष्ट नहीं हो सकती १५४, स्वभावनिष्ठा की सुदृढ़ता ऐसे हो सकती है १५४, स्वभावनिष्ठा के लिए परभावों के प्रति सतत उदासीनता आवश्यक १५४, परभावों और विभावों से सतत उदासीनता और विरक्ति ऐसे रह सकती है १५६, आत्म-स्वभाव में प्रतिक्षण जाग्रत साधक सतत परभावों और विभावों से उदासीन और विरक्त रहते हैं १५७, आत्म-स्वभावनिष्ठ साधक की परमार्थ दशा १५८, आत्म-स्वभावनिष्ट संसार को नहीं, सिद्धालय को अपना घर समझता है १५९, परभावों से मुक्ति का उल्लास होना चाहिए १६०, अनादिकालीन विभाव क्षणभर में दूर हो सकता है : कैसे और किसकी तरह? १६१, स्वभाव में स्थिर होने का अर्थ : अपने ज्ञान में स्थिर होना १६२, ज्ञान की भूमिका अस्वीकार की है, संवेदन की है-स्वीकार की १६३, आत्मा ज्ञान की भूमिका में ही स्वभावनिष्ठ रह सकती है, संवेदन की भूमिका में नहीं १६४, ज्ञान की यानी स्वभाव की अखण्ड अनुभूति केवलज्ञान होने पर ही होती है १६४, स्वभावनिष्ठ की स्वभाव में स्थिरता क्रमशः तीन धाराओं में १६५, प्रथम धारा : निवृत्ति के क्षणों में अनुभवधारा १६६, दूसरी धारा : प्रवृत्ति के क्षणों में लक्ष्यधारा १६६, सम्यग्दृष्टि के व्यावहारिक जीवन में भी लक्ष्यधारा स्पष्ट होती है १६७, तीसरी धारा : सुपुप्त अवस्था में भी आत्मा की प्रतीतिधारा १६७, निष्कर्ष १६८। (६) चतुर्गुणात्मक स्वभाव-स्थितिरूप परमात्मपद-प्राप्ति पष्ट १०० पृष्ठ १६९ से १९९ तक . सामान्य आत्मा में चतुर्गुणात्मक शुद्ध स्वभाव की परमात्मा के समान शक्ति तो है, अभिव्यक्ति नहीं १६९, सामान्य आत्मा और परमात्मा में अनन्त चतुष्टयात्मक स्वभाव लब्धि में है, उपयोग में नहीं १६९, अनन्त चतुष्टयात्मक स्वभाव पर आवरण क्यों और कैसे हो? १७०. सामान्य आत्मा का स्वभाव-सूर्य परभावरूपी राहु और विभावरूपी केतु द्वारा ग्रसित है १७0, आत्मा के चारों गुणात्मक स्वभाव आवृत और मूर्छित क्यों? १७१, आत्मा के मौलिक और अभिन्न गुणात्मक ज्ञान-स्वभाव में शेष तीनों गुणों का समावेश १७१, ज्ञान ही श्रद्धारूप है : कैसे, कितना लाभ, कितना बल ? १७२, ज्ञान (तीव्र दशा में चारित्र) गुणरूप है १७३. ज्ञान मुख (आनन्द) रूप हैं : कैसे-कैसे? १७४. ज्ञान शक्तिरूप है १७५, आत्मा के ज्ञान-स्वभाव में विकृति या मलिनता क्यों आ जाती है? १७६. आत्मा का शुद्ध स्वभाव कैसा होता है, कैसा नहीं ? १७६, शुद्ध ज्ञानी या केवलज्ञानी दर्पणवत् तटस्थ ज्ञाता-द्रष्टा रहता है १७६, साधारण आत्मा ज्ञान-स्वभाव से डिगती क्यों है? १७७. ज्ञान-स्वभाव में स्थिर स्थितात्मा या स्थितप्रज्ञ की पहचान १७७, ज्ञान-स्वभाव में स्थिर साधक की अर्हता के आधारसूत्र १७८, भरत चक्रवर्ती को ज्ञान-स्वभाव में स्थिरता से केवलज्ञान-प्राप्ति १७८, ज्ञान किसी परभाव या विभाव के अवलम्बन से प्रगट नहीं होता. वह स्वतः प्रकट Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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