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________________ * विषय-सूची : आठवाँ भाग * ३६७ * सम्यग्दर्शन का सामान्य अर्थ - सम्यक् श्रद्धा या विश्वास २०३, किस तत्त्वभूत पदार्थ पर श्रद्धा से शुद्ध सम्यग्दर्शन सम्भव ? २०३, व्यवहार सम्यग्दर्शन के अन्तर्गत दशविध रुचि २०५, ये मिथ्यात्वग्रस्त व्यक्ति आत्म-धर्म से, ज्ञान- आचरण से दूर हैं २०६, एकान्त नियतिवाद की प्ररूपणा २०८, एकान्त नियतिवादी : मोक्षमार्ग के मिथ्याप्ररूपक २०८, एकान्त नियति सर्वदुःखान्तरूप मोक्ष का कारण नहीं : क्यों और कैसे ? २०८, अज्ञानवाद : संसार परिभ्रमण का कारण है २०९, तृतीय प्रकार का अंज्ञानवाद : स्वरूप एवं प्रकार २१०, ‘संजयवेलट्ठिपुत्त' का अज्ञानवाद भी सर्वदुःखनाशक मोक्ष का कारण नहीं २१०, तथागत बुद्ध का अस्थिर उत्तर भी अज्ञानवाद का अंग है २११. अज्ञानवादी कहाँ हैं : सुखी, सन्तुष्ट, कुशलक्षेमयुक्त ? २११, अज्ञानश्रेयोवादी अपने सिद्धान्त का निरूपण ज्ञान द्वारा क्यों करते हैं ? २१२, अज्ञानवादियों का ज्ञानवादियों पर आक्षेप और समाधान २१२, अज्ञानवादी - साधक मोक्षमार्ग से दूर, संसारमार्ग के पोषक २१३, एकान्त विनयवाद से भी मोक्ष प्राप्त नहीं होता २१४, एकान्त विनयवादी : सत्यासत्य विवेक से रहित २१४, विनयवादियों में सत्-असत् विवेकशून्यता २१४, विनयवाद के गुण-दोष की समीक्षा २१५, बौद्धों द्वारा अक्रियावाद की प्ररूपणा करने पर प्रकारान्तर २१५, एकान्त क्रियावाद के एक सौ अस्सी भेद २१६, एकान्त क्रियावाद के गुण-दोष की समीक्षा २१७, एकान्त अक्रियावाद भी मोक्ष का कारण नहीं २१७, अक्रियावाद के कुल चौरासी भेद २१७, एकान्त अक्रियावादी मुख्यतः तीन और उनकी प्ररूपणा २१८, तीनों क्रिया करते हैं, फिर भी अक्रियावादी कैसे ? २१९, बौद्धों के कर्मोपचय निषेधरूप क्रियावाद से मोक्ष-प्राप्ति नहीं हो सकती २१९, कर्मबन्ध कब होता है, कब नहीं ? : बौद्धमत विचार २१९, भाव विशुद्ध हों, वहाँ कर्मोपचय नहीं होता, यह तथ्य युक्ति-विरुद्ध है २२० । (९) भक्ति से सर्वकर्ममुक्ति : कैसे और कैसे नहीं ? पृष्ठ २२१ से २५१ तक विस्मृत परमात्म-तत्त्व को पुनः पाने का उपाय परमात्म-भक्ति है २२१, परमात्म-भक्ति से स्व-स्वभाव-परिवर्तन २२१, भक्ति से परमात्म-विमुख परमात्म-सम्मुख हो सकता है : कैसे-कैसे ? २२२, अपने स्वरूप को भूला हुआ मानव प्रभु-भक्ति से शुद्ध आत्म-स्वरूप का भान कर लेता है २२२, परमात्म-भक्ति से वायरलैस सैट समान परमात्मा से सम्पर्क संभव २२४, विनाशी को छोड़कर अविनाशी के साथ प्रीति-भक्ति में भय, दुःख, क्लेश दूर हो जाता है २२४, परमात्म-भक्ति के अमृत के आस्वाद में मस्त आकांक्षाओं पर नियंत्रण २२५, परमात्म-भक्ति से सार्थक आत्म-शक्ति, मनःशक्ति प्राप्त होती है २२५, परमात्म-भक्ति बाह्यकरणों और अन्तःकरणों को शक्ति और आनन्द से भर देती है २२६, परमात्म-भक्ति से सहिष्णुता, निर्भयता और आनन्द का उल्लास २२६, सर्वस्व न्योछावर करने की शक्ति तथा सहन-शक्ति मिलती है परमात्म-भक्ति से २२८, परमात्म-भक्ति में भक्त के जीवन परिवर्तन का अपूर्व सामर्थ्य २२९, ऐसे उदासीन या विमुख परमात्मा की भक्ति क्यों करें ? २२९, यह भक्ति नहीं, भक्ति का नाटक है, सौदेबाजी है २३०, निष्काम भक्ति और सकाम भक्ति में दिन-रात का अन्तर २३०, ऐसी तामसिक अन्ध-भक्ति तो सर्वथा त्याज्य है २३२, जैन और वैदिकादि परम्परा की परमात्म-भक्ति में मूलभूत अन्तर २३२, ईश्वर-कर्तृत्ववादी परम्परा की परमात्म-भक्ति : पराश्रयी और परापेक्ष २३२, परमात्म-सत्ता का 'स्व' में अनुभव करना भक्ति है, जो आनन्दरूपा है २३३, क्रिया और भक्ति में अन्तर : निःस्वार्थ प्रीतिरूप भक्ति का फल २३४, नमन-स्तवन गुणोत्कीर्तनरूप निष्काम भक्ति से अलभ्य लाभ २३४, परमात्मा के प्रति सच्ची भक्ति की दो परख २३६, परमात्मा के प्रति अन्य भक्तिमान् के लक्षण २३६, वीतराग परमात्मा के प्रति अनन्य-भक्ति कैसी होती है? २३७, आगमों की दृष्टि में परमात्मा की अनन्य भक्ति की साधना २३८, आराधनारूप अनन्य-भक्ति के ज्वलन्त उदाहरण २३९, प्रभु की अनन्य भक्ति से अलभ्य लाभ २४०. सुलसा श्राविका अनन्य भक्ति की परीक्षा में उत्तीर्ण २४०, अनन्य भक्तिमान् व्यक्ति की परख २४१, अनन्य-भक्तिमान् व्यक्ति प्रभु को अपने से दूर नहीं मानता २४१, भक्ति का महत्त्वपूर्ण अंग : उपासना : अर्थ, स्वरूप और परिणाम २४२, उपास्य की उपासना से उपासक का तादात्म्य : क्यों और कैसे ? २४३, उपासना श्रेष्ठ चिन्तन और व्यक्तित्व निर्माण का माध्यम २४३, पर्युपासना में कतिपय सावधानियाँ २४३, पर्युपासना का परम्परागत फल सिद्ध (मोक्ष) गति २४५, भक्ति शब्द एक : अर्थ, लक्षण और परिभाषाएँ अनेक २४५, रागात्मक भक्ति से सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष या संवर-निर्जरा कैसे ? २४७, प्रशस्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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