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* ३६८ * कर्मविज्ञान : परिशिष्ट *
राग को भक्ति में स्थान देने के दो कारण २४८, भेद-भक्ति और अभेद-भक्ति का रहस्य, महत्त्व और उपादेयत्व २४९-२५१।
(१०) शीघ्र मोक्ष प्राप्ति के पुरुषार्थ की सफलता
पृष्ठ २५२ से २६९ तक
चार प्रकार के पुरुषार्थ : रहस्यार्थ २५२, साधु श्रावकवर्ग के लिए अर्थ और काम- पुरुषार्थ २५२, दोनों वर्गों का अन्तिम लक्ष्य या ध्येय मोक्ष प्राप्ति है २५४, धर्मादि पुरुषार्थ मोक्ष प्राप्ति के लिए है २५४, धर्म-पुरुषार्थ सर्वपुरुषार्थों की प्राप्ति का मूल कारण २५४, मोक्ष - पुरुषार्थी साधक की शीघ्र सफलता के सूत्र २५५, मोक्ष-पुरुषार्थ की सिद्धि कैसे और कब होती है ? २५६, मोक्ष-पुरुषार्थी सतत अप्रमत्त होना चाहिए २५६, मोक्ष-प्राप्ति के लिए दुर्लभ क्रमशः पन्द्रह अंग २५६, मोक्ष के प्रति पुरुषार्थ मोक्ष के स्वरूप को जानते हुए भी क्यों नहीं होता? २६१, शीघ्र मोक्ष प्राप्ति के लिए चारों का समन्वित पुरुषार्थ जरूरी २६१, कोरे ज्ञान से आचरण में बाधा डालने वाली बातें दूर नहीं होतीं २६२, ज्ञान और आचरण की दूरी का एक कारण : मूर्च्छा का चक्र २६२, चारों आवरणों को मिटाने के लिए २६३, मोक्ष का स्वरूप जानते हुए भी कर्मक्षय का पुरुषार्थ नहीं कर पाते २६३, मोक्ष के लिए सम्यग्ज्ञानपूर्वक पुरुषार्थ का महत्त्व २६४, मोक्ष-पुरुषार्थी का ध्येय, आदर्श तथा पुरुषार्थ में सफलता के मूलमंत्र २६६, ईश्वर या अवतार के हाथ में मोक्ष नहीं, मोक्ष स्व-पुरुषार्थ के हाथ में है २६७, भाग्य भरोसे न रहकर मोक्ष के लिए शुद्ध पुरुषार्थ करना जरूरी २६७, सर्वज्ञप्रभु के ज्ञान के भरोसे न बैठकर मोक्षानुकूल पुरुषार्थ करना चाहिए २६७, मोक्ष-प्राप्ति के पुरुषार्थ में सफलता के लिए पंचकारण समवाय अनिवार्य २६८, मोक्ष - पुरुषार्थ में बाधक और साधक तत्त्व २६८, धर्म-पुरुषार्थ कुछ भ्रान्तियाँ और निराकरण २६९, अर्थ और काम- पुरुषार्थ भी धर्मलक्षी हो, मोक्षाशामूलक हो २६९ ।
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(११) शीघ्र मोक्ष प्राप्ति के विशिष्ट सूत्र
पृष्ठ २७० से ३०९ तक
शीघ्र मोक्ष प्राप्ति के पुराने बोल : नये मोल २७०, मोक्षमार्ग के चार अंगों में इन बोलों का वर्गीकरण २७०, सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष प्राप्त किये बिना कृतकृत्यता नहीं २७१, उन्नीस बोलों का मोक्ष के चार अंगों में वर्गीकरण : कैसे-कैसे ? २७१, सम्यग्दर्शन के सन्दर्भ में प्रथम महत्त्वपूर्ण बोल : मोक्ष की इच्छा २७२, मोक्ष और उसकी इच्छा : क्या, क्यों और कैसे ? २७२, मोक्ष की इच्छा लोकोत्तर होने से कथंचित् उपादेय २७२, निश्चयदृष्टि से मोक्ष की इच्छा हेय, किन्तु व्यवहारदृष्टि से कथंचित् उपादेय २७३, मोक्ष की इच्छा : अन्य सांसारिक इच्छाओं के शमन के लिए २७३, सांसारिक इच्छाएँ बहिर्मुखी : मोक्ष की इच्छा अन्तर्मुखी २७३, मोक्ष की इच्छा से पारमार्थिक लाभ २७४, मोक्ष की इच्छा का तात्कालिक फल २७४, मोक्ष की इच्छा के बाह्य हेतु २७५, मोक्ष की इक्षा के आभ्यन्तर हेतु २७५, संसारानुप्रेक्षा मुमुक्षा का कारण २७५, शरीरानुप्रेक्षा भी मोक्ष में पुरुषार्थ करने की तमन्ना जगाती है २७६, एकत्वानुप्रेक्षा भी मुमुक्षा के अन्तरंग कारण २७६, अशरणानुप्रेक्षा मुक्ति-प्राप्ति में पुरुषार्थ करने की भावना जगाती है २७७, षट्स्थान चिन्तन से मोक्ष की प्रतीति और रुचि जाग्रत होती है २७७, मोक्ष के अंगभूत सम्यग्ज्ञान से सम्बन्धित तीन बोलों का विश्लेषण २७८, पहला बोल-गुरुमुख से सूत्र - सिद्धान्तों का वाचन श्रवण करे तो जीव वेगो-वेगो मोक्ष में जाय २७८, दूसरा बोल - स्वयं ज्ञान सीखने और दूसरों को सिखाने से, ज्ञान में तन्मयता से जीव वेग-वेगो मोक्ष में जाय २७८, तीसरा बोल - पिछली रात्रि में धर्मजागरणा करे तो जीव वेगो-वेगो मोक्ष में जाय २७९, मोक्ष के अंगभूत सम्यक् चारित्र से सम्बन्धित आठ बोलों का विश्लेषण २८०, पहला बोल - सूत्र - सिद्धान्त सुनकर वैसी (सम्यक्) प्रवृत्ति करे तो जीव वेगो-वेगो मोक्ष में जाय २८०, दूसरा बोल - गृहीत व्रतों का शुद्ध (निरतिचार ) पालन करे तो जीव वेगो-वेगो मोक्ष में जाय २८१, तीसरा बोल - संयम का दृढ़ता से पालन करे तो जीव वेगो-वेगो मोक्ष में जाय २८१, चौथा बोल- शुद्ध मन से शील (ब्रह्मचर्य) पाले तो जीव वेगो-वेगो मोक्ष में जाय २८३, शील का स्वरूप, अर्थ और विश्लेषण २८३, ब्रह्मचर्य -सम्बन्धित मनः शुद्धि के कतिपय उपाय २८३, ब्रह्मचर्य के दस समाधि स्थानों का सम्यक्पालन हो २८३, पाँचवाँ बोल - शक्ति होते हुए भी क्षमा करे तो जीव वेगो-वेगो मोक्ष में जाय २८४, क्षमा : स्वरूप, दुष्करता शक्तिशाली के लिए २८४, शक्ति के दो प्रकार और स्वरूप २८४, बाह्यशक्ति : स्वरूप, प्रकार, सदुपयोग-दुरुपयोग २८४, छठा
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