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________________ * विषय-सूची : आठवाँ भाग * ३६५ * संयोग दोनों अर्थों में 90९, परम साध्य की प्राप्ति की दृष्टि से समाधि और संयोग, ये दोनों अर्थ साध्य-साधनरूप हैं ११०. आगमों और योग-ग्रन्थों में दोनों अर्थों के प्रमाण ११०.समाधि और संयोग : ये दोनों योगरूप एक ही पदार्थ के दो रूप १११.वैदिक विद्वानों द्वारा भी योग शब्द समाधि और संयोग अर्थ में प्रयुक्त १११, योग-संग्रह के बत्तीस भेद : धर्म-शक्लध्यान के रूप में ११२. योग के अष्टांगों में ध्यान का महत्त्व ११३, प्रबलता से कर्मक्षय करने में ध्यान ही सक्षम ११३, धर्मध्यान और शुक्लध्यान का संक्षिप्त परिचय ११३, धर्मध्यान का स्वरूप और चार प्रकार ११३, आज्ञाविचय का स्वरूप और चिन्तन की पद्धति ११४, अपायविचय का स्वरूप और उसकी चिन्तन-पद्धति ११४, विपाकविचय का स्वरूप और उसकी चिन्तन-पद्धति ११५, संस्थानविचय का स्वरूप और उसकी चिन्तन-पद्धति ११५, भगवान महावीर द्वारा किया गया संस्थानविचय ध्यान का प्रयोग ११६, धर्मध्यान के चारों भेदों को क्रियान्वित करने के लिए सहायक बारह प्रकार ११६, धर्मध्यान का महत्त्व, लाभ, शुक्लध्यान-योग्य बनने से पूर्व उपादेय ११७, धर्मध्यान के पश्चात् शुक्लध्यान का अभ्यास क्यों? ११७, शुक्लध्यान का अधिकारी साधक कौन? ११७, शक्लध्यान के प्रारम्भिक अभ्यासी साधक की अर्हता ११८, धर्मध्यान और शक्लध्यान का फल ११८, शुक्लध्यान का स्वरूप, अर्थ और लक्षण ११८, शुक्लध्यान के चार प्रकार और उनका स्वरूप ११९, शुक्लध्यान के आदि के दो भेद सालम्बन और अन्तिम दो भेद निरालम्बन १२०, किस शुक्लध्यान में कितने योग? १२०, प्रथम ध्यान दूसरे ध्यान का पूरक और साधक तथा विशेष सामान्यगामी दृष्टि १२०, द्वितीय शुक्लध्यान की उपलब्धियाँ १२१, चारों शुक्लध्यानों में योग-निरोध का क्रम १२२, अयोगी होने से लेकर निर्वाणपद तक १२३, धर्म-शुक्लध्यान के मिलकर बत्तीस प्रकार के योग मोक्ष-प्राप्ति में साधक होते हैं १२३। (६) मोक्ष : क्यों, क्या, कैसे, कब और कहाँ ? पृष्ठ १२४ से १५0 तक मोक्ष-बन्धन-सापेक्ष १२४, ये भाव-बन्धन हैं, इसीलिए मोक्ष का विचार अत्यावश्यक है १२४, संसार भी एक प्रकार का बन्धन : उससे छूटना मोक्ष है १२५, आत्मा की अशुद्ध स्थिति संसार है, विशुद्ध स्थिति मोक्ष है १२६, भावसंसार के विनाश से इस संसार में रहते हुए भी मोक्ष हो सकता है १२६, सदैव कर्मबद्ध रहना आत्मा का स्वभाव नहीं १२७, आत्मा स्वयं ही बँधा है, इसलिए मुक्त भी स्वयं ही हो सकता है १२८, बुद्धिजीवी एवं अज्ञानी लोगों की मोक्ष के विषय में ऊटपटांग कल्पनाएँ १२८, ऐसा मोक्ष नहीं चाहिए मुझे १२९, मोक्ष के विषय में असंगत कल्पनाएँ १२९, क्या इतनी दीर्घकालिक तपःसाधना के बाद रूखा-सूखा मोक्ष मिलेगा? १३०, चार्वाक तो आत्मा और मोक्ष दोनों को नहीं मानता १३०, मोक्ष की अशरीरी अवस्था : शरीर की भोगावस्था से बिलकुल भिन्न १३०, मोक्ष अशरीरी अवस्था है, शरीरादि से बिलकुल मुक्त १३१, भोगवादी वीरों से मोक्ष को तथा मोक्ष के स्वरूप को न तोलें १३२, जन्म-मरणादिरहित मोक्ष कितना अधिक सुखमय ? १३२, मुक्त आत्माओं का परम सुख वास्तविक १३४, शरीरवादी लोगों का मोक्ष में ऊब और युक्तिपूर्वक खण्डन १३५, संसार-सुख और मोक्ष-सुख में महान् अन्तर १३६, संसार सुख-दुःख संस्पृष्ट होता है, मोक्ष सुख-दुःखों से सर्वथा असंस्पृष्ट १३७, मोक्षवादी और स्वर्गवादी धाराओं में महान् अन्तर १३७, मोक्ष के अस्तित्व के विषय में शंका और समाधान १३८, कर्म और आत्मा के अनादि सम्बन्ध को तोड़कर मोक्ष कैसे प्राप्त हो? १३८, कर्म और आत्मा का सम्बन्ध परम्परा से अनादि, किन्तु सादि-सान्त भी १३९, निर्वाण के पर्यायवाचक शब्द १४0, बौद्धदर्शन-मान्य अभाववाचक निर्वाण और उसका निराकरण १४१, जैनदृष्टि से आत्मा के समग्र अस्तित्व को प्रकट करना निर्वाण है १४१, भगवान महावीर द्वारा निर्वाण-विषयक समाधान १४२, निर्वाण के सिद्धि-स्वरूप की व्याख्या १४३, निर्वाण का पारिपार्श्विक वातावरण १४३, सांख्यदर्शन-मान्य मोक्ष का स्वरूप यथार्थ क्यों नहीं? १४३, मोक्ष में अतीन्द्रिय आत्मिक और अव्याबाध-सुख का उच्छेद नहीं १४४, नैयायिक-वैशेषिकों की मोक्ष की कल्पना १४५, योग-वाशिष्ट मत में बन्ध और मोक्ष का लक्षण कितना संगत? १४६, अद्वैत वेदान्तदर्शन में बन्ध और मोक्ष का स्वरूप १४६, वल्लभवेदान्त मत में भी मोक्ष-प्राप्ति के लिए ईश्वर-कृपा अनिवार्य १४८, रामानुज आदि भक्तिमार्गीय आचार्यों की दृष्टि में मोक्ष १४८, योगी अरविन्द-मान्य मोक्ष : स्वरूप और विश्लेषण १४९, आत्मा का स्वरूप में अवस्थान भावमोक्ष तथा कर्मों से पृथक्त्व द्रव्यमोक्ष १५०, मोक्ष का कोई स्थान-विशेष नहीं १५०। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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