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* ३६४ * कर्मविज्ञान: परिशिष्ट *
माना गया है ६९, सम्यग्ज्ञानपूर्वक शुद्ध क्रियाएँ अध्यात्मरूप हैं ७०, अध्यात्मयोग की क्रियान्विति कैसे हो ? ७१, अमूर्त आत्मा से प्रत्येक प्रवृत्ति को कैसे जोड़ा जाए ? ७२, समाधान आत्मा के शुद्ध निर्मल ज्ञान के प्रकाश में ज्ञाता-द्रष्टा बनकर रहूँ ७३, अध्यात्मयोगी इसके अभ्यास प्रारम्भ कहाँ से करे ? ७४, अध्यात्मयोग का ज्ञान क्यों आवश्यक है ? ७४, अध्यात्मयोग की फलश्रुति ७५, (२) भावनायोग ७७, भावनायोग क्या है ? ७७, अध्यात्म-तत्त्व को चित्त में स्थिर करने के लिए भावनायोग आवश्यक ७७, भावनायोग के दो छोर : अध्यात्मयोग और ध्यानयोग ७८, भावनायोग का मुमुक्षु जीवन में सर्वाधिक महत्त्व ७८, भावनायोग : संसार समुद्र का अन्त कराने वाला ७९, भावना का स्वरूप, महत्त्व और विविध अंग ७९, भावनाओं की ऊर्जा-शक्ति का माप ८०, भावनायोग के मुख्य विषय और उनका सुपरिणाम ८१, भावनायोग की उपलब्धि के मुख्य तीन पहलू ८१, भावनायोग की सिद्धि के लिए तीन भावनाएँ आवश्यक क्यों और कैसे ? ८१, (३) ध्यानयोग ८४, ध्यान का अर्थ, लक्षण और स्वरूप ८४, ध्यान में चित्त और चिन्तन की स्थिरता के लिये तीन बातें अपेक्षित ८४, ध्यान की परिभाषाएँ ८४, ध्यानयोग साधना क्यों. करें ? ८५, ध्यानयोग की साधना में मोक्ष प्राप्ति तक डटा रहे ८५, ध्यानयोग द्वारा आत्म-भक्ति में प्रवृत्ति करने का तात्पर्य ८५, ध्यानयोग का अभ्यासी सिद्धियों और लब्धियों के चक्कर में नहीं पड़े ८६. छद्मस्थ और केवली के ध्यान का कालमान ८६, ध्यानयोग की साधना का सुफल ८६, योगी की शक्ति का उपयोग शुभ ध्यान में ८७, धर्मध्यान के अधिकारी एवं उसके ध्याता के प्रकार ८७ धर्मध्यान ध्याता की लेश्या ८८, धर्मध्यान का फल ८८, धर्मध्यान सालम्बन भी, निरालम्बन भी ८८, शुक्लध्यान की प्रक्रिया. लक्षण आदि का संक्षिप्त परिचय ८९, शुक्लध्यान का स्वरूप और लक्षण ८९. प्राथमिक दो शुक्लध्यान श्रुतावलम्बी ८९, गुणस्थान और योग की अपेक्षा शुक्लध्यान के अधिकारी ८९. (४) समतायोग ९०, संमतायोग की महत्ता और उपयोगिता ९०, समतायोग से आत्मा में परमात्म स्वरूप प्रकट हो जाता है ९०, समतायोग की साधना के बिना मोक्ष प्राप्ति असम्भव ९०, सामायिक का लाभ और महत्त्व ९१. समतायोग की साधना से पूर्व उसका सम्यग्ज्ञान एवं उसके प्रति श्रद्धा आवश्यक ९१, समता का लक्षण और समता के एकार्थक शब्द ९१. समतायोग की साधना और फलश्रुति ९२. समतायोग की महत्ता और आवश्यकता ९२, समतायोग क्या करता है ? ९३, समता के बिना ध्यान परिपूर्ण नहीं होता ९४. समतायोग से अवलम्बन से अर्द्ध-क्षण में पूर्वबद्ध कर्मों का नाश ९४, समतायोग ही मुक्ति का अन्यतम उपाय ९५, समतायोगी को प्राप्त तीन महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ ९५, साधकों को समतायोग में प्रवृत्ति और प्रचार की प्रेरणा ९६. (५) वृत्तिसंक्षययोग ९६, आध्यात्मिक उत्क्रान्ति की पराकाष्ठा वृत्तिसंक्षययोग में ९६. वृत्तिसंक्षय अथवा असम्प्रज्ञात ही मोक्ष के प्रति साक्षात् कारण क्यों और कैसे ? ९७, अध्यात्म आदि चतुर्विध योग का सम्प्रज्ञात में और वृत्तिसंक्षय का असम्प्रज्ञात में समावेश ९७, सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात समाधि में अन्तर ९७, जैनदृष्टि से दो प्रकार की असम्प्रज्ञात समाधि ९७ वृत्तिसंक्षययोग में ही सम्प्रज्ञात-असम्प्रज्ञात दोनों का अन्तर्भाव : क्यों और कैसे ? ९८, असम्प्रज्ञात समाधि और वृत्तिसंक्षययोग में नाम का अन्तर है ९९, पंचविधयोग का आगमसम्मत पंचविध संवरयोग में अन्तर्भाव ९९ पंचिवधयोग का अन्तर्भाव मनः समिति और मनोगुप्ति में भी १००, चतुर्विध योगों के बावजूद भी १००, चतुर्विधयोगों के बावजूद भी पंचमयोग की आवश्यकता क्यों ? १००, वृत्तिसंक्षययोग का विशुद्ध स्वरूप और उसका प्रतिफल १०१, योगदर्शनोक्त द्विविध वृत्तियों का निरोध भी वृत्तिसंक्षययोग से १०१, वृत्तिसंक्षय : मनोविज्ञान की दृष्टि से १०२ ।
(५) बत्तीस योग-संग्रह : मोक्ष के प्रति योग, उपयोग और ध्यान के रूप में
पृष्ठ १०३ से १२३ तक साधन ठीक न हों तो साध्य - प्राप्ति नहीं हो सकती १०३, जैनदर्शन में योग का प्रचलित अर्थ और उसके दो रूप १०३, स्वकीय शुभ पुरुषार्थ के बिना अनायास कुछ भी प्राप्त नहीं होता १०४, प्राप्त साधनों के दुरुपयोग या अनुपयोग से साध्य - प्राप्ति संभव नहीं १०५, तीन कोटि के मानव : पतित, यान्त्रिक और समुन्नत १०५, साध्य - प्राप्ति के लिये आत्म-साधना का अधिकारी कौन और क्यों ? १०५. प्राप्त साधनों का सदुपयोग या शुद्धोपयोग ही साध्य प्राप्ति कराता है १०६, इन्होंने त्रिविधयोगरूप साधनों के सही उपयोग से साध्य प्राप्ति की १०७, योग का आध्यात्मिक समाधि के अर्थ में प्रयोग १०७, मोक्ष के साधन योग्य : बत्तीस योग-संग्रह १०८, ये बत्तीस योग-संग्रह : संवर- निर्जरा मोक्षप्रापक १०९. योग शब्द समाधि और
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