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________________ * विषय-सूची : आठवाँ भाग * ३६३ + की विशेषता २७, रग-द्वेषरूपी दो छोरों के बीच में समत्वयोग का पथ हे २८. चित्त या बुद्धि की स्थिति समतामय होने पर ही विषमता मिट सकती है २८. लाभ-अलाभ आदि द्वन्द्वों में समभाव में स्थित रहे तभी समतायोगी २८. संसार-जीवन द्वन्द्वयुक्त, अध्यात्म-जीवन समतायुक्त २९, लाभ-अलाभ के द्वन्द्व में ग्रस्त होने से कितनी समस्याएँ पैदा होती हैं ? ३०, सम्मान-अपमान तथा निन्दा-प्रशंसा का द्वन्द्व भी विषमतावद्धक ३०, जीवन और मरण का द्वन्द्व भी विषमता का उत्पादक ३१, अन्य द्वन्द्वों में भी विषमता न लाने की प्रेरणा ३२. मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि की सुख-दुःख विषयक मान्यता में बहुत ही अन्तर ३२. भौतिक-सुख पराधीन है, आमिंक-सुख स्वाधीन है ३३, समतायोगी साधक में दुःख को सुखरूप में परिणत करने की कला ३४. समतायोग के मार्ग से मोक्ष की मंजिल पाने के पाँच उपाय ३५. प्रतिक्रिया-विरति : क्या. क्यों और कैसे ? ३५, समतायोग से मोक्ष की मंजिल पाने का दूसरा उपाय : सर्वभूतमैत्री ३६, मोक्ष का मांजल प्राप्त करने का तीसरा उपाय : सर्वक्रियाएँ उपयोगयुक्त हों ३७, भावक्रिया और द्रव्यक्रिया के स्वरूप और परिणाम में अन्तर ३७, धर्म-शुक्लध्यान की स्थिरता से सर्वकर्ममुक्ति ३७, ज्ञाता-द्रष्टाभाव : मोक्ष की मंजिल के निकट पहुँचाने वाला ३८-३९। (३) समतायोग का पौधा : मोक्षरूपी फल पृष्ठ ४0 से ६६ तक समतायोगरूप वृक्ष के चार रूपों की आराधना ४१, समतायोग का प्रथम रूप : भावनात्मक समभाव ४१, भावनात्मक समतायोग का स्वरूप और मूल्य ४१, मैत्रीभावना-साधक समतायोग को कैसे समृद्ध करे? ४५, चार कोटि के प्राणियों के साथ समतायुक्त व्यवहार कैसे-कैसे हो? ४५, केवल मैत्री नहीं, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्यभावना भी आवश्यक है ४५, मध्यस्थ द्वारा माध्यस्थ्यभाव की विचारणा, भावना और सार्थकता ४५, माध्यस्थ्यदृष्टि से प्रत्येक धर्म, शास्त्र. दर्शन या मत पर विचार करो ४८, माध्यस्थ्यभाव से शाश्वत परब्रह्म या मोक्ष की प्राप्ति ४९, अनेकान्तवादी मध्यस्थ माध्यस्थ्यभाव के दोषों से बचे ४९, माध्यस्थ्यभाव का विवेकसूत्र : घृणा पाप से हो, पापी से नहीं ५0, इष्ट-अनिष्ट संयोग-वियोग में समभाव रखना है ५१, इष्ट-अनिष्ट संयोग-वियोग सर्वकालस्थायी या अपरिवर्तनीय नहीं ५२, इष्ट-अनिष्ट संयोग-वियोग : कैसे-कैसे, किस-किस रूप में ? ५३, अमनोज्ञ-मनोज्ञ शरीरादि मिलने पर समता में रहे ५४, मनोज्ञ-अमनोज्ञ इन्द्रिय-विषयों के संयोग-वियोग में समभाव रखे ५४, द्वन्द्वों तथा अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में समभाव कैसे रखे? ५५. परिस्थिति के अनकल मनःस्थिति बना लेना ही समतायोग है ५५, ज्ञाता-द्रष्टा बनकर कार्य करने वाला समतायोगी कर्मबन्ध से यक्त नहीं होगा ५५. अनकल हो या प्रतिकल क्षेत्र : समतायोगी समभाव में स्थिर रह सकता है ५६. महल हो या जंगल. समतायोगी के लिए दोनों समान हैं ५६, भेदविज्ञान होने पर ही समत्व में ऊर्ध्वारोहण सम्भव ५७, शरीरदृष्टि बहिरात्मा समतायोग की साधना नहीं कर पाता ५७, ममत्व और समत्व परस्पर विरुद्ध हैं ५८, समतायोग का द्वितीय रूप : दृष्टिपरक समभाव ६०, दृष्टिपरक समभाव : स्वरूप, फलितार्थ ६०, समतामयी सम्यग्दृष्टि-साधक की दृष्टि कैसी होती है ? ६०, एकान्त एकांगी दृष्टिकोण समतामय नहीं होता ६१. समतायोग का तृतीय रूप : साधनात्मक समभाव ६२, अनगार सामायिक और आगार सामायिक : स्वरूप और प्रयोग ६२, आत्म-साधना और सामायिक दोनों अन्योन्याश्रित हैं : क्यों और कैसे? ६२, आत्म-साधना क्या है ? वह समतायोग-साधना को कैसे परिष्कृत करती है ? ६३, व्यवहारदृष्टि से सामायिक-साधना का लक्षण और फलितार्थ ६३, समतायोग का आदर्श : वीतरागता : क्या, क्यों और कैसे? ६४, समत्वयोग की प्रज्ञा का जागरण ६५. जिसमें क्षमता हो, उसमें ही समत्वचेतना का पूर्ण जागरण ६५, समतायोग का चतुर्थ रूप : क्रियात्मक व्यावहारिक समभाव ६६. सर्वांगीण समभाव ही समतायोग के पौधे को पुष्पित-फलित करने में सफल ६६। . (४) मोक्ष से जोड़ने वाले : पंचविध योग पृष्ठ ६७ से १०२ तक भवरोगनाशक मोक्षप्रापक योग का माहात्म्य ६७, मोक्ष से जोड़ने वाला योग ही यहाँ विवक्षित है ६८, योगबिन्दु में मोक्ष-प्राप्ति के अन्तरंग-साधक पंचविध योग का महत्त्व ६८, (१) अध्यात्मयोग ६९, अध्यात्म शब्द का अर्थ और फलितार्थ ६९, चतुर्थ गुणस्थान से चतुर्दशम गुणस्थान तक उत्तरोत्तर शुद्ध अध्यात्म Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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