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________________ कर्मविज्ञान: आठवाँ भाग खण्ड ११ कुल पृष्ठ १ से ५११ तक मोक्ष-तत्त्व का स्वरूप और विवेचन निबन्ध १८ ... पृष्ठ १ से ५११ तक (१) निर्जरा का मुख्य कारण : सुख-दुःख में समभाव पृष्ठ । मे १६ तक एकान्त सुख और एकान्त दुःख किसी जीवन में नहीं आता १, सुख-दुःखरूप फल के समय आसक्ति से कर्मबन्ध करता है १, कर्मबन्ध को कैसे तोड़े, कैसे निर्जरा करे? २. सुख-दुःख का वेटन न करे, तभी आंशिक मुक्ति पाता है २, धर्मकला से अव्याबाध सुख-प्राप्ति ३. भरत चक्रवर्ती की निर्लिप्तता और सुखभोग में समता ३. सब व्यवहार करता हुआ भी मैं अलिप्त रहता हूँ ४, सुखरूप फल प्राप्त होने पर सुखासक्त होने का परिणाम ४, सुखभोगासक्त होने से अन्त में नरक-दुःखों की प्राप्ति ४. सुखरूप फल भोगते समय सुखासक्त होना दुःख को आमंत्रित करना है ५, सुख-सुविधावादी लोगों का कुतर्क उन्हें दुःख के गर्त में डालता है ५, सनत्कुमार चक्रवर्ती को भयंकर रोगरूप-दुःख प्राप्त हुआ ६, रोगरूप दुःख को समभाव से सहने से कर्मनिर्जरा का अलभ्य लाभ ६, आज के अधिकांश मानव धर्मकला से अनभिज्ञ ७, धर्मकला : कब और कब नहीं? ८, मन के अनुकूल-प्रतिकूल संयोगों में सुख-दुःख की कल्पना करना मिथ्या है ८. कोई भी जीव किसी दूसरे को सुख या दुःख नहीं दे सकता ८, गाली स्वीकार ही न करे तो गाली देने वाला उसे दुःखी नहीं कर सकता ९, दुःख के वातावरण में समभाव रखे तो संवर-निर्जरा कर सकता है १0, स्थूलदृष्टि से तथा प्रतिशोधदृष्टि से देखने वालों की मिथ्या भ्रान्ति ११, सुख के साधन जुटा देने पर भी दूसरे व्यक्ति उसे सुखी न बना सके ११, स्थूलदृष्टि बाले लोग शरीरलक्षी, समतादृष्टि वाले आत्मलक्षी १२. सख-द:ख में समभावी साधक द्वारा कर्ममक्ति का संगीत १२. सख-द:ख में ज्ञानी समभावी और अज्ञानी विषमभावी हो जाते हैं १३, जीवन में सुख की अधिकता होने पर भी अज्ञानतावश दुःख को आमंत्रण १३, सेठ ने दुःखकर प्रसंग को भी सुखरूप मान लिया १३. सुख-दुःख के सभी प्रसंगों में समभाव से अभ्यस्त व्यक्ति का जीवन १४, पुण्योपार्जन के साथ-साथ निर्जरा कैसे? १५, दुःख में दैन्य न हो सुख में गर्व न हो, यही समभावी का लक्षण १५, कर्म-परवश जीव के सत्पुरुषार्थ से आत्मा स्वतंत्र हो सकती है १५, स्वेच्छा से और अनिच्छा से कर्मफल भोगने में अन्तर १६। (२) समतायोग का मार्ग : मोक्ष की मंजिल पृष्ठ १७ से ३९ तक ___ अध्यात्मयात्री की रीति-नीति १७, अध्यात्मयात्री मोहजाल में नहीं फंसता १७, अध्यात्मयात्री समतायोग के सहारे मोक्ष की मंजिल तक पहुँचता है १८. समतायांग में अविनाशी के साथ योग है १८. समतायोग आत्मा को परमात्मा से या मोक्ष से जोड़ता है १९, समतायोग से भी शान्ति, विरक्ति, सहिष्णुता एवं सर्वकर्ममुक्ति १९, समतायोग के अभाव में दुःख, पीड़ा. असन्तोप और अशान्ति १९, समतायोग स्वीकार करने पर ही समाधि. मुक्ति या सुगति २०. अतीत. अनागत और वर्तमान में ममतायोग के प्रभाव से ही मोक्ष २०, समता के बिना जप, तप, क्रियाकाण्ड आदि अकिंचित्कर २१. समता से श्रमण और श्रमणोपासक होता है २१, समतायांग का अभ्यास न होने पर फलाकांक्षा टोप आ सकता है २२. समतायोग के बिना स्थायी रूप से कोई भी समस्या हल नहीं हो सकती २२, समतायोग के बिना ये सब व्यर्थ हैं २३. सामायिक की शुद्ध साधना : कव और कैसे? २३, आत्म-स्थिरतारूप समतायोग के अभाव में २३, समतायोग का उद्देश्य और प्रयोजन २४, समतायोग का बाह्य और आन्तरिक स्वरूप ही उसका उद्देश्य २४, समतायोग का मूल्य २५. समत्वचेतना जाग्रत होने से शान्ति, समाधि और आनन्दानुभूति २५, समत्वयोगी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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