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________________ * विषय-सूची : सातवाँ भाग * ३६१ * ४५१, शरीरादि साधनों की चिन्ता : साध्य-आत्म-देव की उपेक्षा ४५२, शरीर और आत्मा के गुणधर्म में अन्तर है ४५३, वीतराग प्रभु से भेदविज्ञान की प्रार्थना ४५३, शरीरादि को आत्मा से अभिन्न मानने पर अनेक आपत्तियाँ ४५३, शरीर से आत्मा को पृथक् करने का तात्पर्य ४५४, भेदविज्ञान का स्पष्ट और विशद अर्थ ४५६, भेदविज्ञान न होने पर आत्मा की कितनी अधोगति? ४५६, भेदविज्ञान का दीपक जले बिना आत्मा को कर्मबन्धक विकार घेर लेंगे ४५७, शरीरदृष्टि बहिरात्मा कर्मलिप्त एवं दुर्लभबोधि बन जायेंगे ४५८, भेदविज्ञान से रहित और युक्त के आचरण में कितना अन्तर? ४५८, मन और वचन भी शरीर के ही अन्तर्गत हैं : क्यों और कैसे? ४६०, भेदविज्ञान से अनभिज्ञ शरीर के लिए ही सारी कमाई खर्च डालता है ४६१, शरीरासक्त मानव का सारा जीवन शरीर-चिन्तन में ४६२, शरीरवादी की मनोवृत्ति ४६२, शरीर को आत्मा से अभिन्न मानने वाले लोगों का चिन्तन और कर्तृत्व ४६३, अयोग-संवर और कषायमन्दता के लिए भेदविज्ञान ४६४, भेदविज्ञानी बड़े-से-बड़े संकट पर समभावपूर्वक विजय पा सकता है ४६४, भेदविज्ञानी का चिन्तन और आचरण ४६४, मन से पर-भावों से आत्म-द्रव्य का सम्बन्ध तोड़ना ही भेदविज्ञान है ४६५, भेदविज्ञान-साधक पर-भावों से बचकर संवर लाभ करता है ४६५, भेदविज्ञान का एक प्रक्रिया ४६६, जब काशी-नरेश देहभाव से ऊपर उठ गये थे ४६७, भेदविज्ञान का आसान तरीका : अन्य विचारों में मग्न हो जाना ४६७, आत्म-भावों में निमग्न होने से शरीर की आवश्यकताओं से मन हट जाता है ४६७, रोग, आतंक या पीड़ा की स्थिति में भेदविज्ञानी का चिन्तन ४६७, भेदविज्ञान से सर्वकर्ममुक्ति व सिद्धि कैसे प्राप्त होती है ? ४६८, भेदविज्ञान ‘अ स्व' को 'स्व' से पृथक् करने या होने से दुःखी नहीं होता ४६८, भेदविज्ञानी का कर्म और कर्मपर्याय से पृथक्ता का स्पष्ट अनुभव ४६९, भेदविज्ञान जीवन में परिपक्व हो जाने पर ४६९, प्रदेशी राजा ने भेदविज्ञान के प्रकाश में समाधिमरण प्राप्त किया ४६९, भेदविज्ञान के अभ्यास से संवर, निर्जरा और मोक्ष की प्राप्ति ४७०। (१६) शीघ्र मुक्ति का सर्वोत्तम उपाय : अविपाक निर्जरा पृष्ठ ४७१ से ४८५ तक ___संसार-बन्धनों से बद्ध आत्मा क्या कभी मुक्त हो सकता है ? ४७१, कुछ दार्शनिकों का मत : जन्म-मरण चक्र से आत्मा कभी मुक्त नहीं हो सकेगा ४७१, केवल नरक में जाना ही बन्धन नहीं, स्वर्ग में जाना भी बन्धन है ४७२, मोक्ष के लिए पाप की तरह पुण्य भी, तज्जनित सुख भी त्याज्य है ४७२, सांसारिक सुख और दुःख दोनों ही बन्धनरूप हैं, अहितकर हैं ४७३, साधारण आत्मा कभी परमात्मा या बन्धन-मुक्त कभी हो नहीं सकता : एक भ्रान्ति ४७३, भयंकर बन्धन में जकड़ा हुआ आत्मा एक दिन सर्वथा बन्धन-मुक्त हो सकता है ४७४, बद्ध कर्मबन्धन से मुक्त होना आत्मा का सहज स्वभाव है ४७४, प्रत्येक प्राणी बन्धन-मुक्त होना पसंद करता है ४७५, सम्यग्दृष्टि मुमुक्षुसाधक के समक्ष शुभ कर्मों को क्षय करने की समस्या नहीं ४७५, जैन-कर्मविज्ञान बद्ध दशा और मुक्त दशा दोनों को मानता है ४७६, निर्जरा के प्रकार : सविपाक और अविपाक ४७६, सविपाक निर्जरा का लक्षण, स्वरूप और कार्य ४७६, अविपाक निर्जरा का लक्षण, स्वरूप और कार्य ४७७, अविषाक निर्जरा का लक्षण और स्वरूप ४७७, संवर के साथ निर्जरा हो, तभी उभयविध निर्जरा कृतकार्य ४७८, मोक्ष की कारणभूत निर्जरा कौन-सी और कौन-सी नहीं ? ४७९, सम्यग्दृष्टि द्वारा संवरपूर्वक अविपाक निर्जरा ही शीघ्र मोक्ष की कारण ४८०, सकामनिर्जरा और मोक्ष में कार्य-कारणभाव सम्बन्ध ४८०, पूर्वोक्त अविपाक निर्जरा द्वारा शीघ्र ही, कदाचित् उसी भव में मोक्ष सम्भव ४८०, अविपाक निर्जरा के द्वारा शीघ्रतर मोक्ष-प्राप्ति के ज्वलन्त उदाहरण ४८३, अविपाक निर्जरा : कब और कैसे-कैसे? ४८५। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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