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* विषय सूची : सातवाँ भाग * ३५५ *
संयम में स्थिर और समर्पित कर दिया १५५ संघ - समर्पित साधु-साध्वियों को नियाणा करने से रोका १५५. गोशालक को भूल बताने - कहने से भगवान क्यों विरत हो गए ? १५५, विद्वेषी और झगड़ालू भूल न बताकर मौन रहना श्रेयस्कर १५६, भूल बताना अवार्य हो तो किसको, कब, कैसे बताई जाय ? १५६, स्थिरीकरण और उपबृंहण का रहस्य १५७, बार-बार टोकने की आदत से भी वैरानुबन्ध की संभावना १५८, बार-बार टोकने का दुष्परिणाम अतिरोषवश मरकर सर्पयोनि में १५८, 'टक-टक' और 'टकोर ' में बहुत अन्तर १५९, चैन स्मोकर को बार-बार 'टक-टक' करने की पत्नी की प्रवृत्ति १६०, वाक्-संबर के इच्छुक को तुरन्त वहीं पर नहीं कहना चाहिए १६१, मालिक की हर बात पर डाँट फटकार से नौकर नहीं सुधरता १६२, मालिक का तुरन्त आक्रोश नौकर को विद्रोही बना सकता है १६२, अहंकारग्रस्त व्यक्ति भूल कबूलवाने के चक्कर में १६२, बचन से तीखे प्रहार बनाम मधुर और सीमित शब्द १६२, दोनों पक्षा को कई प्रकार से संवर-लाभ : क्यों और कैसे ? १६३, अत्यंकारी को कर्मानव-निरोधरूप संवर एवं शान्त जीवन का महालाभ १६४, सहृदयतापूर्ण शब्दों में उपालम्भ से उभय पक्ष को लाभ १६५, अभ्याख्यान, पैशुन्य और पर-परिवाद : वाक्-संवर में अत्यन्त बाधक १६६ ।
(७) योग्य क्षेत्र में पुण्य का बीजारोपण
पृष्ठ १६७ से १९८ तक
जैसा बीज : वैसा फल १६७, बीज बोने से पहले और पीछे फल मिलने तक रखी जाने वाली सावधानी १६७, जीवन-क्षेत्र में आत्म-भूमि पर शुभाशुभ कर्मबीज का भी फल मिलता है १६८, पुण्य बीज के नौ प्रकार १६८, अशुभ योग से निवृत्त होने की अपेक्षा से शुभ योग-संवर कहा है १६८, पुण्य बीज बोते समय भी पात्रता और योग्यता का विचार करना अनिवार्य १६९, अनुकम्पापात्र, मध्यम सुपात्र और उत्कृष्ट सुपात्र : कौन-कौन, किस अपेक्षा से ? १६९, पात्र का विचार करने के साथ देय वस्तु का भी विचार करना चाहिए १७०, दान स्वरूप, विशेषता और उससे पुण्य, संवर और निर्जरा १७०, पात्र-अपात्र का विवेक अवश्य करना चाहिए १७२, देय वस्तु तथा विधि का विवेक भी दान में अनिवार्य है १७२, दान में उपर्युक्त विवेक से अफल-सुफल का विचार १७२ ये अन्ध-विश्वासयुक्त या परम्परागत अशुभ प्रवृत्ति, अशुभ भावात्मक हैं, शुभ भावात्मक नहीं १७३, चिकित्सक और वधक का कृत्य एक-सा होने पर भी शुभ-अशुभ भावों के कारण पुण्य-पाप १७४, वस्तु या पात्र मुख्य नहीं, दाता के भाव मुख्य हैं : कुछ ज्वलन्त उदाहरण १७४, इस सूत्रपाठ का 'परमार्थ' १७५, 'तथारूप' तथा 'पडिलाभेमाणस्स' शब्दों का रहस्ययुक्त फलितार्थ १७६, 'तथारूवं' तथा 'पडिलाभेमाणस्स' शब्दों से रहस्य फलित होता है १७७, अनुकम्पापात्र जीवों पर भी शुभ भावों से अनुकम्पा की वृत्ति प्रवृत्ति करने से पुण्यबन्ध होता है १७७, सम्यग्दृष्टि और व्रती श्रावक भी स्वाश्रित जीवों या दुःखित - पीड़ितों की सहायता से पुण्य बाँधता है १७८, संसार के समस्त अनुकम्पनीय प्राणियों पर अनुकम्पा करने से पुण्यबन्ध और सातावेदनीय फल प्राप्त होता है १७९, मनुष्येतर जीव भी पुण्योपार्जन कर सकता है १८०, पंचस्थावर- कायिक जीव भी पुण्य उपार्जित करके सातावेदनीय का बन्ध कर सकते हैं १८०, नारक और निगोद के जीव भी पुण्योपार्जन कर सकते हैं। १८१, मानवेतर प्राणी भी मानवों और अन्य प्राणियों को साता उपजाकर पुण्यबन्ध करते हैं १८१, एक आगमिक पुण्यकथा : मृग द्वारा मुनि को आहार दिलाने की १८२, नवविध पुण्य-प्राप्ति के विषय में भगवतीसूत्र के दो निर्जरापरक पाठ प्रस्तुत किये जाते हैं १८२, दोनों सूत्रपाठों को नवविध पुण्यपरक मानना भ्रान्ति है : क्यों और कैसे ? १८३, पुण्य और निर्जरा को या पुण्य और धर्म को एक मानना भी भ्रान्तियुक्त है १८४, पुण्य और निर्जरा में भी महान् अन्तर है १८४, तथारूप श्रमण और माहन को दान देने से निर्जरा के साथ पुण्यबन्ध भी होता है १८५, श्रमण-निर्ग्रन्थ को आहारादि दान देने से उत्कृष्ट पुण्य एवं निर्जरा दोनों फल प्राप्त होते हैं १८६, पुण्य किस भूमिका में हेय है, किस भूमिका में उपादेय ? १८७, पूर्वबद्ध कर्म और उसके उदयकाल के बीच के लम्बे सत्ताकाल में कर्मफल- परिवर्तन सम्भव १८७, घोर मिथ्यात्वी पापात्मक कर्मों को पुण्यात्मक रूप में बदल नहीं पाते १८८, एक बार भी पापात्मक कर्म - संस्कार पुण्योन्मुख होने पर उत्तरोत्तर अधिकाधिक पुण्यात्मक होते जाते हैं १८८, पुण्य की उपादेयता और सार्थकता किस भूमिका में और क्यों ? १८९, पापबन्ध में बन्ध से छूटने का अवकाश नहीं, पुण्यबन्ध में अवकाश है १८९, पुण्य के मुख्यतया दो प्रकार : लौकिक और पारमार्थिक १९०, अधिकांश लोग पुण्य
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