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________________ * ३५६ * कर्मविज्ञान : परिशिष्ट * का फल पाना चाहते हैं; शुद्ध पुण्य अर्जित करने का प्रयत्न नहीं करते १९०, सुख-शान्ति के लिए पुण्याचरण करना वर्तमान युग में भी अनिवार्य है १९१, पापकर्मों के आचरण से आनन्द की अपेक्षा पुण्यकर्मों के आचरण में अधिक आनन्द है १९१, पुण्याचरण से उभयलोक में मिलने वाली भौतिक उपलब्धियाँ १९२, पुण्याचरण के नौ माध्यम, उनका स्वरूप और आचरण का निदर्शन १९३, नौ प्रकार के पुण्यों के निष्कामभाव से आचरण से महान् फल १९८। (८) निर्जरा : अनेक रूप और स्वरूप पृष्ठ १९९ से २३६ तक कर्मों का बन्ध होने वाला तत्त्व बन्ध और छूटने वाला तत्त्व निर्जरा है १९९, कर्मनिर्जरा : लक्षण, स्वरूप और प्रयोजन १९९, निर्जरा का सामान्य लक्षण २00, निर्जरा का लक्षण : समस्त जीवों की दृष्टि से २00, मुमुक्षुओं के लिए निर्जरा क्यों आवश्यक है ? २00, कर्मनिर्जरा क्यों और कैसे-कैसे होती है ? २०१, निर्जरा की प्रक्रिया २०२, अनुभाव कर्म के स्वभावानुसार होता है २०२, वेदना और निर्जरा एक नहीं है २०३. निर्जरा : आत्मा से कर्म-परमाणओं का विलग हो जाना है २०४. महावेदना वाले सभी महानिर्जरा वाले नहीं होते २०४, श्रमण महावेदना या अल्पवेदना होने पर भी महानिर्जरा वाले क्यों? २०४, महावेदना और महानिर्जरा से सम्बन्धित चौभंगी २०६, चौबीस दण्डकवर्ती जीवों में से कौन, कब महावेदना और अल्पवेदना से युक्त? २०७, जीव महाकर्मादि के कारण दुःखी और अल्पकर्मादि के कारण सुखी होते हैं २०८, मायि-मिथ्यादृष्टि नैरयिक महाकर्मादियुक्त २१0, मिथ्यादृष्टि अकामनिर्जरा कर पाते हैं, सम्यग्दृष्टि सकामनिर्जरा २१0, एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीव असंज्ञी होने से अकाम-निकरण वेदना वेदते हैं २१०, संज्ञी और समर्थ जीव भी अकाम-निकरणक तथा प्रकाम-निकरणक वेदना वेदते हैं २११, जिसकी निर्जरा प्रशस्त. वही श्रेयस्कर है २१२. ईश्वर किसी के कर्म लगाता-छडाता नहीं २१३. स्वकत कर्म : स्वयं ही फल भोगकर निर्जरा २१३, कोई भी शक्ति दूसरे के कर्मों का कर्ता नहीं २१४, केवली की चरमनिर्जरा के सूक्ष्म पुद्गलों को कौंन जान-देख पाता है ? २१५, संज्ञीभूत और उपयोगयुक्त मनुष्य ही उस निर्जरा को जान-देख सकते हैं २१६, आत्मा से कर्मों को पृथक् करने का ठोस उपाय २१८, अब तक सब कर्मों का क्षय क्यों नहीं? २१८, अकामनिर्जरा से कष्ट-सहन अधिक, कर्मक्षय कम : कैसे? २१९, अज्ञानी और ज्ञानी के कर्मक्षय करने में अन्तर २१९, एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीव भी अकामनिर्जरा वाले होते हैं २२३, ये मनुष्य भी अकामनिर्जरायुक्त होते हैं : क्यों और कैसे? २२४, विविध व्रतधारी तथा विविध प्रकार के तापस भी अकामनिर्जरायुक्त २२५, पूरण बाल-तपस्वी द्वारा कृत अकामनिर्जरा का फल २२६, आचार्यादि के प्रत्यनीक श्रमण भी अकामनिर्जरा वाले हैं २२७, आत्मोत्कर्षाभिलाषी श्रमण भी अकामनिर्जरा से युक्त अनाराधक २२८, निह्नव श्रमण भी अकामनिर्जरायुक्त एवं अनाराधक २२९, परिव्राजक आदि भी अकामनिर्जरा करते हैं २२९, अनिच्छापूर्वक ब्रह्मचर्यादि पालने वाली महिलाएँ भी अकामनिर्जरा से युक्त २३०, तथाकथित कान्दर्पिक श्रमण : अकामनिर्जरा से युक्त अनाराधक २३०, प्रकृतिभद्र उपशान्त गृहस्थ भी अकामनिर्जरा के कारण अनाराधक २३१, निर्जरा के दो प्रकार : अकामनिर्जरा का फलितार्थ २३१, सकामनिर्जरा का स्वरूप २३२, सकामनिर्जरा सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष-साधक के लिए अभीष्ट २३२, सकामनिर्जरा : कहाँ-कहाँ, कैसे-कैसे ? २३३, विशिष्ट सकामनिर्जरा की व्याख्या २३४, सकामनिर्जरा और मोक्ष में अन्तर २३४। (९) निर्जरा के विविध स्रोत पृष्ठ २३५ से २६१ तक निर्जरा एक : अनेक रूप और अनेक प्रकार २३५, पात्रों की स्थिति के अनुसार उत्तरोत्तर क्रमशः असंख्येयगुणी निर्जरा २३६, दिगम्वर-परम्परा में सविपाक-अविपाक निर्जरा : एक अनुचिन्तन २३८, सरागसम्यग्दृष्टि या सरागसंयमी के अशुभ कर्मों की महानिर्जरा कैसे? २३९, सकामनिर्जरा सम्यग्ज्ञानपूर्वक संवरसहित होती है २४०, सम्यग्ज्ञानसहित संवरपूर्वक सकामनिर्जरा के शास्त्रीय प्रमाण २४१, अम्बड़ परिव्राजक तथा उसके शिष्यों की सकामनिर्जराराधना २४२, निर्ग्रन्थ श्रमणों की महानिर्जरा, महापर्यवसान के रूप में सर्वकर्ममुक्ति २४३, भोगों का सर्वथा त्याग : महानिर्जरा का कारण कब? २४३, प्रशस्त त्रियोग से तीन-तीन मनोरथ से महानिर्जरा २४४, वाचनारूप स्वाध्याय से महानिर्जरा और महापर्यवसान : क्यों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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