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* ३५४ * कर्मविज्ञान : परिशिष्ट *
(५) योग का मार्ग : अयोग-संवर की मंजिल
पृष्ठ ११७ से १४७ तक । त्रिविध योग से जीवन नैया को खेने वाला नाविक ११७, योग से अयोग की मंजिल तक पहुँचने योग्य संसार-यात्रा ११७, सत्यद्रष्टा महर्षि ही संसार-समुद्र को पार कर सकते हैं ११८, उपयोग लक्षण जीव योग द्वारा क्यों और कब प्रवृत्त होता है ? ११८, संसारी जीव की प्रत्येक प्रवृत्ति त्रिविध योगों के संयोग से ११८, शरीर संयोगवश क्रिया, कर्म और लोक, तीनों का भोक्ता आत्मा ११९, योग द्वारा बाह्य स्थिति और उपयोग द्वारा आध्यात्मिक स्थिति ११९, संसारी आत्मा की प्रवृत्ति के लिए त्रियोग की आवश्यकता १२०, तीनों योग विवेकी के लिए कर्ममुक्ति में सहायक १२0, जहाँ योग है, वहाँ आम्रव है; अयोग है, वहीं संवर १२१, चौथे से तेरहवें गुणस्थान तक शुभ योग-संवर १२१. सर्वप्रथम प्रवृत्ति का. विचार प्रायः मन में प्रादुर्भूत होता है १२४, मन में प्रादुर्भूत अन्तरंग भावधाराएँ : अशुभ, शुभ, शुद्ध १२४, अशुभ भावधाराओं से अशुभानव पापकर्मबन्ध और कटुफल १२४, शुभ भावधारा से शुभाम्रव, पुण्य कर्मबन्ध और शुभ योग-संवर १२५, शुभ योग के दो प्रकार : प्रशस्त और अप्रशस्त : स्वरूप और अन्तर १२६, अप्रशस्त शुभ योग और अशुभ योग में अन्तर १२६, प्रशस्त शुभ योग-संवर से अयोग-संवर की भूमिका १२७, प्रशस्त शुभ योग-संवर की धारा का प्रतिफल १२७, गीतादर्शन और जैनदर्शन का योग के सम्बन्ध में मन्तव्य १२७, कर्मयोगी को अन्तिम समय तक कर्म न छोड़ने का निर्देश १२८, भगवान महावीर ने योग को मार्ग
और अयोग को मंजिल कहा १२८, अन्य दर्शनों और जैनदर्शन की दृष्टि में अन्तर १२९, प्रशस्त शुभ योग के साथ-साथ शुद्धोपयोग, निर्जरा और अयोग-संवर की स्थिति १३0. प्रशस्त शुभ योगी त्रियोग को प्रशस्त शुभ योग में स्थिर रखने के लिए क्या करे ? १३१, शरीर का मूल्यांकन और प्रयोग : सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि द्वारा १३२, शरीर का मूल्यांकन : विभिन्न दृष्टि वाले व्यक्तियों द्वारा १३२, विवेकी सम्यग्दृष्टि
और अविवेकी असम्यग्दृष्टि द्वारा संसार परिशोषित और परिपोषित १३३, मानव-शरीर में शक्ति के तीन स्थान १३४. तीन कोटि के व्यक्ति १३४, शरीर का आध्यात्मिक मूल्यांकन १३५. सम्यक्त्वयुक्त शुभ योग-संवर की स्थिरता के लिए १३५, त्रियोगों की प्रवृत्ति-निवृत्ति का सन्तुलन : शुभ योग-संवर के लिए आवश्यक १३७, योगों को सन्तुलित करने हेतु स्थिरता का अभ्यास करो १३८, प्रत्येक प्रवृत्ति के साथ यतना को सम्पन्न करने की विधि १३८ भावक्रिया और द्रव्यक्रिया : स्वरूप. अन्तर और निष्पत्ति का उपाय १३९, भावक्रिया की निष्पत्ति के लिए तीन तत्त्वों पर ध्यान देवें १४0, त्रिविध योगों से समस्त प्रवृत्तियाँ संयम के हेतु से हों १४१, स्वरूपलक्षिता से अयोग-संवर की पूर्ण स्थिति प्राप्त होती है १४१, आत्म-स्थिरता होने पर प्रत्येक प्रवृत्ति अयोग-संवर का रूप ले लेती है १४२, आत्म-स्थिरता प्रतिक्षण रखने के लिए मुख्य तीन उपाय १४४, निःस्वार्थभाव से संयम हेतु से की जाने वाली प्रवृत्ति भी निर्दोष है १४५, भगवदाज्ञा समझकर अनासक्त, निःस्पृह एवं समर्पणभाव से कार्य करने वाला संवर का आराधक है १४५, पनिहारिनों की तरह लक्ष्य में एकाग्रता हो तो अयोग-संवर सहज हो जाता है १४६, विधायक दृष्टिकोण के अभ्यासी साधक के लिए अयोग-संवर सुलभ १४६, संत एकनाथ के विधायक दृष्टिकोण से महिला की वृत्ति का परिवर्तन १४७, प्रतिक्रिया-विरति से भी अयोग-संवर सुलभ. १४७। (६) वचन-संवर की सक्रिय साधना
पृष्ठ १४८ से १६६ तक ___वाहनों की गति पर ब्रेक लगाने की तरह योगत्रय पर भी आवश्यक १४८, वचन पर ब्रेक न लगाने का दुष्परिणाम १४८, ब्रेक होने पर भी गाड़ी को अन्धाधुंध चलाने का परिणाम १४८, पुण्य और धर्म के बदले पाप और अशुभ बन्ध का उपार्जन १४९, यागत्रय-संवर परस्पर एक-दूसरे से सम्बद्ध १४९, शुभ योग-संवर : कब होगा, कब नहीं? १४९, वचन-संवर आदि जीवन में कैसे क्रियान्वित हों ? १५0, दूसरों की भूल देखने में शूरवीर : स्वयं को भूल देखने में कायर १५0, स्वयं की गलती को दबाने की कोशिश १५१, परिस्थितिवश हुई दूसरे की गलती के प्रति असहिष्णु १५१, सारी दुनिया की भूल सुधारने का ठेका अहंकारीवृत्ति है १५१, अनिवार्य परिस्थिति में दूसरे की भूल देखें, कहें या नहीं? १५२, भूल देखने, जानने
और कहने का अधिकारी कौन? १५२, भूल किसे, कैसे और किस प्रकार कहना? १५३, भगवान महावीर ने गौतम स्वामी की भूल सुधारी १५३, भगवान ने महाशतक श्रावक की भूल सुधारी १५४, मेघ मुनि को
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