________________
-
कर्मविज्ञान:सातवाँ भाग खण्ड १०
कुल पृष्ठ १ से ४८५ तक संवर एवं निर्जरा तत्त्व का स्वरूप-विवेचन निबन्ध १६
पृष्ठ १ से ४८५ तक (१) अप्रमाद-संवर का सक्रिय आधार और आचार
पृष्ठ १ से २४ तक प्रमाद से हुई ट्रेन-बस टक्कर से मृत्यु का भयंकर ताण्डव १, प्रमाद मृत्यु है, अप्रमाद अमृत्यु (जीवन) : क्यों और कैसे? २, जीवन में प्रमाद साधना को दूषित कर देता है ३, जान-बूझकर किये गये प्रमाद से साधना नष्ट ४, भगवान महावीर का उपदेश : समयमात्र भी प्रमाद मत करो ५, अप्रमाद के लिये मोहनिद्रा में सुप्त लोगों के बीच रहते हुए भी सर्वथा जाग्रत रहो ६, मृत्यु को साक्षात् खड़ी देख साधक प्रमाद नहीं कर पाता है ७. जीव अपने ही प्रमाद से द:ख पाता है ८. प्रमाद कर्म है और अप्रमाद धर्म : क्यों और कैसे? ९, प्रमाद-निरोध के मुख्य दो उपाय १0, इन्द्रिय-विषयों के प्रति प्रमाद के कारण जीवों की दुर्दशा ११, प्रमादी को सब ओर से भय, अप्रमादी को कहीं भी भय नहीं १२, प्रमाद-सेवन के कारण और निवारणोपाय १२, अप्रमाद-संवर के लिए : इन्द्रियों के उपयोग में सावधान रहें १३, शरीर, इन्द्रियों आदि का स्वरूप समझकर प्रमाद में न फँसो १४, शरीरादि के साथ रहते हुए भी अप्रमत्त रहकर पराक्रम करें १४, प्रमादाचारी : स्वजनों के साथ रहते हुए भी उनमें आसक्त न हो १५, ऐसा अप्रमादाचारी साधक बार-बार जन्म-मरण करता है १६, अप्रमाद-संवर-साधक कैसे प्रमाद से बचकर चर्या करे? १६, प्रमाद का मोर्चा कहाँ-कहाँ और कैसे-कैसे? १६, यतनाशील अप्रमत्त-साधक की विशेषता १८, अप्रमाद-संवर के साधक की भावचर्या और द्रव्यचर्या कैसी हो? १९, अप्रमाद का स्वरूप, प्रकार और प्रयोग १९, अप्रमत्तता के दृढ़ अभ्यासी आत्मवान् के लिए छह बातें २०, प्रमाद-निरोध का एक प्रेक्टिकल पाठ २0, शुभ योग-संवर के रूप में अप्रमाद-संवर की एक सरल उदात्तीकरण-प्रक्रिया २३-२४।। (२) अकषाय-संवर : एक सम्प्रेरक चिन्तन
पृष्ठ २५ से ५५ तक रसबन्ध और स्थितिबन्ध कषाय से होता है २५, भगवान महावीर को भी दीर्घकाल तक वेदना भोगनी पड़ी २६, कषाय की तीव्रता-मन्दता के अनुसार रसबन्ध-स्थितिबन्ध और संसार में स्थिति २६, कषाय का अर्थ ही संसार-वृद्धि है २६, अरिहन्त भी कषाय-रिपुओं का क्षय करके ही बनते हैं २७, अकषाय-संवर का तीव्र पराक्रम नहीं किया २८, क्या कषायों को अपनाए बिना काम नहीं चलता २८, कषाय आत्मा का स्व-भाव नहीं, विभाव है २८, अकषाय-संवर कैसे हो सकेगा, कैसे नहीं ? २९, कषाय से आत्मा की तथा आत्म-गुणों की हानि ही हानि है २९, कपाय-सेवन से इहलोक और परलोक सर्वत्र सन्ताप २९, अधिक सुख किसमें है? : कषाय-सेवन से या अकषाय से? ३0, कषाय-सेवन से सुख-शान्ति नहीं ३०, कषायों के बिना भी जीवन-व्यवहार चल सकता है ३१, कषायों से दूर रहने का स्वभाव बनाने पर ही जीवन की सार्थकता ३१, कषायों का आश्रय लेने पर संसार बढ़ेगा ही, घटेगा नहीं ३२, कषाय के निरोध या त्याग से आवृत्त आत्म-गुण प्रकट होंगे ३२, कषाय-त्याग से परम लाभ ३३, कषायों पर विजय कैसे प्राप्त हो? ३३, कषायों से अधोगति तथा अल्पलाभ : अनेकगुणी हानि ३३, वातादि विकारों से उन्मत्त की अपेक्षा कषायों से अधिक उन्मत्त ३४, साधकों के जीवन में कषायों का जबर्दस्त घेराव और परिणाम ३५, कषाय के कुचक्र में फँसा हुआ साधक ३६, कषायों का आक्रमण दसवें गुणस्थान तक होता रहता है ३८, पापकर्मजनित दुःखों से बचने का उपाय ३९, कषाय करने की आदत प्रायः बदलती नहीं ३९, कषायों के चक्कर में फंसकर स्वयं अशान्ति मोल लेना है ४०, क्रोधादि कषाय क्यों उत्तेजित होते हैं ? ४0, कषाय के
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org