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________________ * ३५० * कर्मविज्ञान : परिशिष्ट * उत्पत्ति में रति और नष्ट होने पर अरति क्यों ? ४९५, रति-अरति दोनों पृथक्-पृथक् क्यों नहीं, एक क्यों? ४९५, रति-अरति को पापस्थान क्यों माना गया? ४९६, रति-अरति के साथ अनेकविध पापकर्मों का संचय ४९६, रति-अरति की परिवर्तनशीलता में न बहकर व्यक्ति दृष्टि बदले ४९७, वस्तुस्वरूप का ज्ञान होने से रति-अरतिभाव नहीं होता ४९८, रति-अरति की पाप-प्रवृत्ति बंद करने से इस पापकर्मबन्ध से बच जायेगा ४९९, रति-अरति राग-द्वेष की पूर्वावस्था है ४९९, रति-अरति पापस्थान से बचने का सरल उपाय ४९९, सुलसा समता की साधना से रति-अरति दोनों ही प्रसंगों पर इनसे बच गई ५00, आत्मरति-परायण समत्व के साधक के लिए क्या रति और क्या अरति ? ५00, मनरूपी पक्षी को समाधिरूपी पिंजरे में बंद रखो ५०१, मन को समाधि में स्थिर करने के लिए ध्यानरूपी वृक्ष पर आरूढ़ करो ५०१, (१७) सत्रहवाँ पापस्थान : माया-मृषावाद : एक अनुचिन्तन ५०२, माया-मृषावादी वारांगना के समान अनेकरूपता से युक्त ५०२, महात्मा और दुरात्मा में अन्तर : एकरूपता और विपरीतता ५०२, जान-बूझकर अपने बोले हुए वचन को भंग करने वाले भी माया-मृषावादी ५०३, माया-मृषावादी कैसा होता है, कैसा नहीं ? ५०३, माया-मृषावादी की पहचान के लक्षण ५०५, बाघ का चमड़ा ओढ़े हुए गधे के समान माया-मृषावादी ५०५, माया-मृषावाद से विरत होने के उपाय ५०६, (१८) अठारहवाँ पापस्थान : मिथ्यादर्शनशल्य : एक चिन्तन ५०६, मिथ्यादर्शन का अर्थ और स्वरूप ५०६, मिथ्यादर्शन को शल्य क्यों कहा गया? ५०७, मिथ्यादर्शन में शेष सत्रह ही पापस्थानों का समावेश हो जाता है ५०७, युद्ध में अन्धे की तरह अज्ञानी मिथ्यात्वी भी विकारों के साथ युद्ध में विजयी नहीं हो पाता ५०८, मिथ्यादर्शन को पाप क्यों कहा गया? ५०८, मिथ्यादर्शनशल्य को निकालने के उपाय ५०९। (२४) पतन और उत्थान का कारण : प्रवृत्ति और निवृत्ति पृष्ठ ५१० से ५२८ तक जीव अठारह पापस्थानों से भारी होते हैं ५१०, आत्मा के अधोगमन के कारण : अठारह पापस्थान ५११, जीव पापों के सेवन से भारी और विरति से हलके होते दिखाई क्यों नहीं देते? ५११, तुम्बे पर लेप के रूपक द्वारा पापस्थानों से गुरुत्व-प्राप्ति का बोध ५१२, पापस्थानों से मुक्त मानव ऊर्ध्वगमन करता है, ५१२, पापकर्म न करने का भगवान का उद्बोधन ५१४, फिर भी पापकर्म क्यों और किसलिए करते हैं? ५१४, पापकर्मों के फल से कोई भी बच नहीं सकता ५१५, जिनके लिए पापकर्म करता है, फल भोगने में वे हिस्सा नहीं बँटाते ५१५, अविवेकी सुख-दुःख के मूल को नहीं सोचता ५१७, धर्मस्थानों में क्रिया करने से पाप नहीं धुल सकते ५१७, भय से पापकर्म न करने वाले भी पाप के फल से नहीं बच सकते ५१८, पापकर्म का भय नहीं, पापकर्म कोई देख न ले, यह भय है ५१८, अन्तर में पापकर्म-त्याग की प्रेरणा नहीं जगी, वहाँ पापकर्म-त्याग सच्चा नहीं ५१८, पापभीरु का पाप-त्यागी की पहचान ५१९, पापकर्म के फल से छुटकारा अन्यान्य उपायों से नहीं, स्वयं पापकर्म छोड़ने से ही सम्भव है ५१९, पूर्वकृत पापकर्मों का फल देर-सबेर से भोगना ही पड़ता है ५२०, भगवान महावीर को भी अनेक भवों तक पापकर्मों का फल भोगना पड़ा ५२०, पापकर्मों से कौन बच सकता है ? ५२०, अपने आप को न देखने से मनुष्य पापस्थानों की ओर बढ़ता है ५२१, पापस्थानों से विरत होने का दूसरा मूलमंत्र ५२१, आत्मा से आत्मा को सम्यक् प्रकार से देखो-जानो ५२२, आत्मा को आत्मा से देखने का रहस्यार्थ ५२२, पर-पदार्थ और उन्हें देखने से पापस्थानों की उत्पत्ति कैसे? ५२३, पर-भावों की ओर देखने वाला अभव्य कालसौकरिक ५२४, कालसौकरिक-पुत्र सुलसकुमार की हिंसादि पापों से विरति ५२४, यतनापूर्वक प्रवृत्ति करने से पापकर्म से बचाव हो सकता है ५२५, 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' का आत्म-दृष्टि-साधक पापकर्मों से सहज विरत हो जाता है ५२५, रागादियुक्त सम्बन्ध जोड़ने से नरक का निर्माण होता है ५२७, पर-पदार्थों की ओर नहीं झाँकने वाले को आध्यात्मिक विकासारोहण ५२७, पापस्थान अगणित, किन्तु उन सब का अठारह में परिगणन ५२७-५२८। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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