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________________ * ३४० * कर्मविज्ञान : परिशिष्ट * ४१, ४४, ऐसी प्रतिक्रिया का दुष्परिणाम ४०, निर्बल व्यक्ति भी निमित्त के प्रति दुष्प्रतिकार या दुर्भावना करता है। कष्ट के समय निमित्तों के प्रति प्रतिक्रिया करने वालों को चेतावनी ४२, श्वानवृत्ति का त्याग करने से संवर और निर्जरा का उपार्जन ४३, सिंहवृत्ति वाला साधक दुःख के मूल कारणरूप को पकड़ता है ४३, महासती सीता का सिंहवृत्तिमूलक चिन्तन ४४, सीता जी ने संवर- निर्जरा की साधना का अवसर नहीं चूका , कैदी की मनोवृत्ति निमित्तों को दोष देने की नहीं होती ४६, संवर और निर्जरा की साधना तुम्हारी मुट्ठी में ४६, निमित्त तो कर्मसत्ता के आदेश का पालन करने वाला है ४७, संवर - निर्जरा-साधक के समक्ष तथ्य : सुख-दुःखकर्त्ता स्वयं आत्मा ही ४७, कर्मसत्ता को चुनौती देने की क्षमता किसी में भी नहीं ४७, अनिकाचित कर्मों को उदय में आने से पहले बदला जा सकता है ४८, निकाचित कर्मों को सम्यग्दृष्टि और समभावी बनकर भोगो ४८, हत्या करने का किसी का षड्यंत्र कर्मसत्ता विफल बना देती है ४८, कर्मसत्ता के द्वारा दिये गए दण्डादेश को टालना अशक्य ४९, कर्मसत्ता द्वारा दिये गए दण्डादेश को टालने वाले या उसके विरोधकर्ता को अधिक दण्ड ४९, तत्त्वज्ञ सम्यग्दृष्टि द्वारा समभाव से दण्ड भोगने पर सजा कम या माफ भी हो सकती है ५०, कर्म का दण्ड भुगताने वाले निमित्त को वह शत्रु नहीं मानता ५०, वह माध्यम (निमित्त) से लड़ता-भिड़ता नहीं ५१, सहन करो, प्रतिकार या मुकाबला मत करो ५१ प्रतिक्रिया - विर्ति के लिए इस प्रकार शीघ्र प्रतिक्रमण करो ५२, हिंसक - प्रतिकार का विचार आए तो अग्निशर्मा और गुणसेन के चरित्र को याद करो ५३, तीसरे मास के उपवास का पारणा टल जाने पर अग्निशर्मा का कोप और नियाणा ५४, अग्निशर्मा तापस की भयंकर भूल ने संवर-निर्जरा का अवसर खो दिया ५५, संवर और निर्जरा के साधक ने अन्त तक समभाव से कष्ट सहे ५५, कर्मसत्ता निमित्त पर प्रहार करने को सहन नहीं करती ५६, निमित्त को दण्ड देने का विचार तक न आने दो ५६ । (५) समस्या के स्रोत : आम्रव, समाधान के सोत संवर : पृष्ठ ५७ से ७३ तक समस्याओं का जाल क्यों और कौन बुनता है ? ५७, आम्रव और संवर: समस्याओं तथा उनके समाधान का मूल स्रोत ५८, आम्रव की पाँच पुत्रियाँ ५८, प्रथम समस्या जननी : मिथ्यादृष्टि आम्रवसुता ५८, मिथ्यात्व का स्वरूप और तात्पर्यार्थ ५९, मिथ्यात्व के कारण अगणित समस्याएँ पैदा होती हैं ५९. मिथ्यात्व के कारण समस्याएँ समझ में ही नहीं आतीं ६०, यह सब मिथ्यात्व के नशे का ही प्रभाव है ६०, स्वयं के सम्बन्ध में अज्ञानता ही मिथ्यादृष्टि है ६१, अविद्या का स्वरूप और मिथ्यादृष्टि से सदृशता ६१, बहुकर्मलिप्त मूढ़ व्यक्तियों को स्वरूप - बोध अतिदुर्लभ ६१, द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव की दृष्टि से मिथ्यात्व का दायरा ६२, मिथ्यात्व के कारण नाना दुःखोत्पादक समस्याएँ ६२, वस्तुतः मिथ्यात्व मकड़ी के जाल के सदृश है ६२, द्वितीय समस्या - जननी : अविरतिरूप आम्रव ६३ प्रमाद आम्रव: समस्याओं का विशिष्ट जनक ६४, कषाय- आस्रव: समस्याओं का अचूक उत्पादक ६४, समस्याओं की पंचम जननी : योगों की चंचलता ६५, ये समस्याएँ पत्तों की समस्याएँ हैं, जड़ की नहीं ६५, मूल समस्या क्या है ? उसको कैसे पहचानें ? ६६, अपनी आत्मा को अपने आप से देखो - परखो ६६, जो एक को जानता है, वह सर्व को जान लेता है ६६, मूल पाँच समस्याएँ आनव की पाँच पुत्रियाँ हैं ६७, क्या गरीबी, अभाव आदि के कारण ये समस्याएँ खड़ी होती हैं ? ६७, पूर्वोक्त समस्याओं का समाधान भी यथार्थ नहीं ६८, समाधान का स्रोत : संवर, उसके पाँच घटक ६८, मिथ्यादृष्टि से उत्पन्न समस्याओं का एकमात्र समाधान : सम्यग्दृष्टि ६८, अविरति से उत्पन्न समस्याओं का समाधान : विरतिरूप संवर ६९, अप्रमाद से अनेक समस्याओं का समाधान: कैसे और क्यों ? ६९, योगत्रय की चंचलता कम होने पर ही आत्म-समाधि की सक्षमता ७०, सम्यग्दर्शन-संबर से पंचविध उपलब्धियाँ ७0, संसारी जीवन में आम्रव रहेगा संवर ही उसे रोकने का उपाय है ७०, आम्नव और संवर : अपने हाथ में ७१, समस्याओं का एक और समाधान: रत्नत्रय - साधना ७१ समस्या को असली रूप में पकड़ने पर ही सही समाधान मिल जाता है ७२-७३। : (६) पहले कौन ? संवर या निर्जरा ? पृष्ठ ७४ से ८९ तक पहले क्या करें ? ७४, पहले आस्रवों का निरोध ७४, पहले अशुभ कर्म-प्रवाह को रोकना होगा ७५, प्रथम संवर, फिर निर्जरा उपादेय है ७५, जैनागमों द्वारा संवर को प्राथमिकता देने का सयुक्तिक समाधान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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