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________________ * विषय-सूची : छठा भाग * ३४१ * ७५, गलत पटरी पर आती हुई ट्रेन सर्वप्रथम रोकी जाती है ७७, पहले नये आते हुए पानी को रोकना जरूरी है ७७, सहसा पहले संवर और फिर निर्जरा कैसे करे? : एक उदाहरण ७८, आँधी के समय पहले द्वार और खिड़कियाँ बंद की जाती हैं ७९, ‘ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया' का रहस्य ८0, चिकित्सा-क्षेत्र में रोग को दबाने और मिटाने की उभयदृष्टि ८१, कभी-कभी रोग को तत्काल दबाना आवश्यक होता है ८१, कामरोग-पीड़ित के लिए सर्वप्रथम संवर मार्ग श्रेयस्कर ८२, सर्वप्रथम काम का उपशमन आवश्यक है ८३, इन्द्रियों को खुली छूट दे देने का दुष्परिणाम ८३, वृत्ति को सहसा दमित करने से क्या हानि, क्या लाभ? ८४, सर्वसामान्य व्यक्तियों के लिए पहले संवर आवश्यक ८५, आध्यात्मिक जगत् में दो दृष्टियाँ ८५, साधक की दृष्टि उपादान तक पहुँचे ८६, क्षपकश्रेणी के प्रयोग में असंख्यगुणी निर्जरा ८७, अपरिपक्व-साधक निर्जरा की भ्रान्ति में ८७, परिपक्व-साधक की दृष्टि एवं लगन ८७, साधक की प्रज्ञा संवर-साधना के साथ-साथ निर्जरा पर भी टिके ८८, परिपक्व-साधक संवर एवं निर्जरा दोनों को अपनाता है ८८, सामान्य-साधक की शुभयोग-संवररूप चर्या से उत्तरोत्तर विकास ८९। (७) संवर और निर्जरा का प्रथम साधन : गुप्तित्रय पृष्ठ ९० से ११0 तक आत्मारूपी गाड़ी के लिए सक्षमता आदि का विचार आवश्यक ९०, संवर और निर्जरा के उपार्जन के लिए सात प्रबल साधन ९०, संवर के मुख्य दो भेद : द्रव्य-संवर और भाव-संवर : लक्षण और कार्य ९१, संवर निवृत्तिपरक है ९२, संवर और सकामनिर्जरा की अर्हता : कहाँ-कहाँ, कैसे-कैसे? ९२, संवर के सत्तावन भेद : मुख्यतया निवृत्तिपरक ९२, संवर के पूर्वोक्त सत्तावन भेदों से संवर के साथ निर्जरा भी होती है ९३, संवर-निर्जरा-सेनानी कैसे कर्मशत्रुओं को प्रवेश से रोकते हैं ? ९३, संवर का प्रथम साधन : गुप्तित्रय का प्रयोग ९४, तीन गुप्तियों के लक्षण ९५, गुप्तित्रय : सच्चे अर्थों में गुप्ति कब? ९६, गुप्तियों को क्रियान्वित करने के उपाय और लाभ ९७, मनोगुप्ति के दो रूपों से साधना में सरलता ९७, धर्मध्यान के चार अवलम्बनों पर मन की एकाग्रता ९७, मनोगुप्ति के लिए तीन स्वरूपों का चिन्तन ९७, मनोगुप्ति की साधना में सफलता के लिए तीन चिन्तन-बिन्दु ९८, मनोगुप्ति की साधना के दो मुख्य सोपान ९८, मनोगुप्ति से दो लाभ : एकाग्रता और विशुद्ध संयमाराधना ९८, संरम्भ, समारम्भ, आरम्भ का लक्षण ९९, मनोगुप्ति की सम्यक् साधना के लिए ९९, मनोगुप्ति के चार प्रकार ९९, वचनगुप्ति के दोनों रूपों की साधना : संवर-निर्जरा की कारण १00, कब वचनगुप्ति, कब वचनगुप्ति नहीं? १०१, वचनगप्ति के चार प्रकार और उनसे संवर कब तथा कैसे? १०१, वचनगुप्ति के लिए तीन प्रकार के वचनों से बचना, हटना १०१, वचनगुप्ति से आध्यात्मिक लाभ १०२, कायगुप्ति : क्या, क्यों और उसकी सफलता कैसे? १०२, शरीर को महत्त्व इतना क्यों ? इसकी रक्षा क्यों? १०३, कायगुप्ति कहाँ-कहाँ, कैसे-कैसे की जाए? १०५, कायगुप्ति के दो रूप : साधना की सफलता के लिए १०५, कायगुप्ति के दो रूप : दूसरी अपेक्षा से १०६, आगमों में कायगुप्ति के प्रेरक कुछ रूपक १०६, कायगुप्ति का लक्ष्य : संवर और निर्जरा का अर्जन १०६, यह कायंगुप्ति नकली या असली? १0६, गुप्ति-पालक के लिए संवर के तत्काल प्रयोग का निर्देश १0७, गुप्ति-पालन में सावधानी न रखे तो शीघ्र पतन १0८, समिति और गुप्ति दोनों प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप हैं १०९, तीनों गुप्तियों का व्यवहारदृष्टि से संक्षिप्त लक्षण १०९-११०। (८) संवर और निर्जरा का द्वितीय साधन : पंच-समिति पृष्ठ १११ से १३३ तक - प्रवृत्ति में उत्तरोत्तर शुद्धता ही कर्ममुक्ति की यात्रा में उपयोगी १११, सम्यक् प्रवृत्ति मुक्तियात्रा में सहायक कैसे बनती है ? १११, समिति क्या है? उससे संवर-निर्जरा कैसे हो सकती है ? ११२, समिति का व्यवहार और निश्चयदृष्टि से अर्थ ११२, समितियाँ पाँच ही क्यों? ११३. सम्यक् विशेषण जोड़ने से ही वास्तविक समिति ११४, गुप्ति और समिति में अन्तर ११४, समिति का सम्यक् प्रयोजन : प्रमादरहितता तथा प्राणि-पीड़ा-परिहार ११५, पाँच समितियों का प्रयोजन, लाभ तथा संयमविशुद्धि ११५, ईर्यासमिति का लक्षण एवं विशेषार्थ ११६, ईर्यासमिति की परिशुद्धि के चार कारण तथा विशेष यतना ११७, ईर्यासमितिपूर्वक गमन में सावधानी ११८, चर्या करते समय साधक को दशवैकालिकसूत्र की चेतावनी ११८, ईर्यासमिति-पालन में कुछ सावधानी रखनी चाहिए १२०, ईर्यासमिति के कतिपय अतिचार : दोष Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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