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________________ कर्मविज्ञान:छठाभाग खण्ड ९ कुल पृष्ठ १ से ५२८ तक संवर तत्त्व के विविध स्वरूपों का विवेचन निबन्ध २४ पृष्ठ १ से ५२८ तक (१) कर्ममुक्ति के लिए चार तत्त्वों का ज्ञान आवश्यक पृष्ठ १ से १0 तक बन्ध एवं मुक्ति का विज्ञान है कर्मविज्ञान १, साधक को चार तथ्यों का ज्ञान आवश्यक २, सर्वप्रथम आस्रव और बन्ध को जानना आवश्यक २, ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान-परिज्ञा से तोड़ो ३, कषाय, नोकषाय आदि राग-द्वेष के ही बेटे-पोटे ४, कर्ममुक्ति और उसके हेतु को जानना आवश्यक ४, तनाव आदि मानसिक रोग : कारण और निवारण ५, मनोरोगचिकित्सा के लिए भी चार बातों का ज्ञान आवश्यक ५, कर्मरोग-मुक्ति के उपाय : संवर और निर्जरा ७, आस्रव और बन्ध तथा संवर और निर्जरा क्या है ? ७, पातंजल योगदर्शन में भी दुःखत्रयमुक्ति का उपाय ८, बौद्धदर्शन में दुःखमुक्तिरूप निर्वाण के उपाय ९-१०। (२) धर्म और कर्म का कार्य, स्वभाव और प्रभाव पृष्ठ ११ से २५ तक धर्म और कर्म : परस्पर विरोधी या संवादी? ११, धर्म और कर्म का कार्यक्षेत्र ११, संवर-निर्जरारूप धर्म का प्रभाव १२, शुभ कर्मफल को धर्मफल मानना : महाभ्रान्ति १२, पुण्यफल को धर्म का फल मानने से आत्मिक हानि १४, धर्म और. पुण्य को एक मानने से शुद्ध धर्ममूल्यों की हानि १४, धर्म की उपासना करने पर भी जीवन में परिवर्तन क्यों नहीं? १५, धर्म के नाम से नाना भ्रान्तियाँ : धर्म की आत्मा लुप्त १५, धर्म करने और न करने वाले में क्या अन्तर है? १९, धर्म करने और न करने वाले दोनों पर भी कष्ट आता है २0, धार्मिक और अधार्मिक के कष्ट भोगने में अन्तर २0, शुद्ध धर्म का कार्य कर्म के कार्य से भिन्न है २२, धर्म से आन्तरिक चेतना में परिवर्तन होना चाहिए २३, विपत्ति दोनों पर आती है : क्यों और कैसे? २३, धर्म करने वाले की दृष्टि में धर्म का उद्देश्य २४, धर्माराधना और कर्माराधना करने वाले की विशेषता में अन्तर २५। (३) धर्म और कर्म : दो विरोधी दिशाएँ पृष्ठ २६ से ३८ तक धर्म और कर्म का केन्द्र-बिन्दु और कार्य भिन्न-भिन्न हैं २६, मोहनीय कर्म आदि क्या-क्या करते हैं ? २६, मोहनीय कर्म का कार्य मूर्छित, मूढ़ और विकृत करता है २७, चारित्रमोहनीय कर्म और संवर-निर्जरारूप धर्म का फल २७, मोहकर्म के विरोध में धर्म क्या कर सकता है ? २८, धर्म का केवल उपासनात्मक रूप अपनाने से हानि २८, ये भय और प्रलोभन के आधार पर धर्म करने वाले २९, धर्म-पालन के प्रति कुतर्क और यथार्थ समाधान २९, धार्मिक के समक्ष दो ही तथ्य, अधार्मिक के समक्ष तीन तथ्य २९, धार्मिक व्यक्ति की तीन विशेषताएँ ३०, कर्मजनित सुख एवं धर्मजनित सुख में अन्तर ३१, सुख और दुःख में राग-द्वेष से हानि ३१, अन्तराय कर्म : स्वरूप, कार्य, निरोध और क्षय का उपाय ३३, नामकम : कार्य और स्वरूप ३४, गोत्रकर्म के आस्रव और बन्ध से संवर-निर्जरा द्वारा मक्ति सम्भव ३५. आयुष्य कर्म का कार्य और उसका क्षय आदि ३६, धर्म की शक्ति त्रिवेणी द्वारा आठों ही कर्मों से मुक्ति सम्भव ३७-३८। (४) संवर और निर्जरा : एक विश्लेषण पृष्ठ ३९ से ५६ तक सिंह और कुत्ते की दो प्रकार की वृत्ति ३९, जीव भी दो प्रकार की वृत्ति वाले हैं ३९, सिंहवृत्ति वाले उपादान को, श्वानवृत्ति वाले निमित्त को पकड़ते हैं ३९, श्वानवृत्ति वालों की प्रवृत्ति कैसी होती है? ३९, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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