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* कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * ४५ *
आसव के दो रूप : ईर्यापथिक और साम्परायिक
गग-द्वेपरहित केवलज्ञानी वीतराग या तीर्थंकर भी शरीरधारी होने के नाते अपनी आवश्यक क्रियाएँ करते हैं, करते क्या हैं, वे क्रियाएँ सहजभाव से होती रहती हैं, वे केवल तटस्थ ज्ञाता-द्रप्टा रहते हैं। इसी प्रकार वीतरागता-प्रेमी मुमुक्षुसाधक भी यत्नाचारपूर्वक समस्त दैनिक आवश्यक प्रवृत्तियाँ करता है, उनमें कथंचित् प्रशस्त रागभाव होते हुए भी वे प्रवृत्तियाँ पापकर्मबन्धक नहीं होती, व्यवहारदृष्टि से शुभ योग-संवर साधक होती हैं। तीसरा सामान्य व्यक्ति है, जो मन-तन-वचन से मनचाही प्रवृत्तियाँ करता है। इन तीनों में से प्रथम वीतराग केवली या तीर्थंकर के केवल सातावेदनीयरूप शुभ कर्म का आस्रव है, किन्तु वह भी कषाय न होने से प्रथम समय में केवल स्पर्श होता है, दूसरे समय में झड़ जाता है। कर्मों के इस प्रकार के आगमन को ईर्यापथिक आस्रव कहते हैं। शेष दो कोटि के व्यक्ति साम्परायिक आम्रव की कोटि में आते हैं। किन्तु इनमें से साधक कोटि के व्यक्ति में कषाय या राग-द्वेष होते हुए भी मन्द है, मन्दतर हो सकता है। उसके साम्परायिक आस्रव आने पर भी शुभ कर्मों का आगमन होता है, जबकि जो व्यक्ति कपाय और राग-द्वेष में आकण्ठ डूबा हुआ है, आत्म-स्वरूप का कुछ भी भान नहीं है, अवांछनीय कर्मों को वापस लौटाने या अस्वीकृत करने जितना त्रियोग का आत्मबल भी नहीं है, उसके साम्परायिक आम्रव होते हुए भी अशुभ कर्मों का आगमन स्वाभाविक है। यों साम्परायिक आस्रव के दो भेद हुए-शुभाम्रव और अशुभानव। आस्रव के दो विभाग : भावानव और द्रव्यानव
उपर्युक्त दोनों प्रकार के आनव भावानव की दो शाखाएँ हैं। इस उपेक्षा से आम्रव के दो विभाग हैंभावानव और द्रव्यासव। आत्मा की रागादि या कपायादि विकारयुक्त मनोदशा या आत्मा के राग-द्वेपादि परिणामवश पुद्गल द्रव्यकर्म वनकर आत्मा में आता है, उस परिणाम को भावाम्नव कहते हैं। उक्त परिणामानुसार कर्मवर्गणाओं के आत्मा में आगमन की प्रक्रिया का उक्त परिणाम के निमित्त से उक्त प्रकार की कर्मपुद्गल वर्गणमएँ आकर्पित होकर आत्म-प्रदेशों में प्रवेश करती हैं, वह कर्मों का आगमन द्रव्यानव है। ईर्यापथिक और साम्परायिक आम्रव के ४२ आधार
ईर्यापथिक आसव का आधार मन-वचन-काया का योग है। इसलिए ई-पथिक आस्रव के तीन भेद हैं-मनयोग, वचनयोग और काययोग। साम्परायिक आम्रव के ३९ आधार हैं-हिंसादि ५ अव्रत, ४ कपाय, ५ इन्द्रिय (विषय) और कायिकी, आधिकरणिकी आदि २५ (ईर्यापथिक क्रिया को छोड़कर २४ ही) यों कुल ३९ भेद हुए. यों आस्रव के कुल ४२ भेद नवतत्त्व में बताए गए हैं, इनका निरोध करने से ४२ प्रकार के संवर होते हैं। सूत्रकृतांगसूत्र में अर्थक्रिया आदि १३ क्रियाओं का वर्णन है, वे भी आस्रव की कारण हैं। इन सब के प्रकार और स्वरूप का विस्तार से यहाँ वर्णन किया गया है। आम्नव की आग के उत्पादक और उत्तेजक : कौन और क्यों ?
वस्तुतः आसव एक ऐसी आग है, जो आत्मा के अनन्त ज्ञान-दर्शन के प्रवाह को झुलसा डालती है, असीम आनन्द की अनुभूति को विकृत कर डालती है। अनन्तः शक्ति के स्रोतों को विमूढ़ और स्थापित कर
देती है। प्रश्न होता है-आत्मा के गुणों, शक्तियों और विशेषताओं को क्षति पहुँचाने वाले इस आसव अग्नि . . के उत्पादक और उत्तेजक कौन-कौन हैं ? इसका समाधान इस निबन्ध में विशेप रूप से दिया गया है कि
मल आग है-राग-द्वेषरूप भावानव (आस्रव हेत)। इस आस्रवाग्नि का प्रथम उत्पादक व सहायक हैमिथ्यात्व. द्वितीय है-अविरति या अव्रत, तृतीय है-प्रमाद, चतुर्थ सर्वाधिक प्रबल उत्पादक व सहायक हैकषाय और योग (मन-वचन-काय प्रवृत्तिरूप)। इन चारों आम्रवाग्नियों के उत्पादकों को प्रज्वलित रखने और उत्तेजित करने वाला वायु है। आम्रवाग्नि के उत्पादकों और उत्तेजकों के प्रत्येक के स्वरूप, अंग और प्रकार का तथा ये उत्पादक और उत्तेजक क्यों हैं ? इसका विस्तृत विवेचन प्रस्तुत निबन्ध में किया गया है। कर्मों के आस्रव के मुख्य द्वार
- इसके पश्चात् स्वाभाविक जिज्ञासा होती है कि आत्मा में कर्मों के आकर्पण, आगमन, प्रवेश या संश्लेषणरूप पूर्वोक्त आस्रव के मुख्य द्वार कितने हैं ? तथा ये मुख्य द्वार क्यों हैं ? इनके उपद्वार भी हैं या
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