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________________ कर्मविज्ञान : भाग ३ का सारांश कर्मों का आस्रव और संवर कर्मों का आस्रव: स्वरूप और भेद कर्मविज्ञान द्वारा कर्म के अस्तित्व, वस्तुत्व, मूल्यांकन एवं कर्मफल के विविध आयामों के वर्णन के बाद सहसा जिज्ञासा होती है कि कर्मों का आस्रव क्या है ? वह किन-किन कारणों से होता है ? उसे रोकने का उपाय क्या है ? किन - किन माध्यमों से आस्रवों का निरोधरूप संवर कैसे-कैसे किया जा सकता है ? इन सब का समाधान कर्मविज्ञान के तीसरे भाग के खण्ड ६ में किया है। वैसे देखा जाए तो कर्म-प्रायोग्य पुद्गल - परमाणु सारे आकाश-प्रदेश में ठसाठस भरे हैं, जीव के आसपास फैले हुए हैं, वे घूमते रहते हैं। प्रवेश उसी जीव में, वहीं करते हैं, जहाँ उनके साथी पहले से बैठे हों, या जहाँ राग-द्वेष या कषाय की स्निग्धता हो, अथवा जहाँ मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय या योग आदि पाँचों आस्रवद्वारों (प्रवेशद्वारों) में से कोई द्वार खुला हो। इसीलिए आम्रव का सामान्यतया अर्थ किया गया है, जिससे कर्म आएँ, कर्मों का आगमन हो, वह आस्रव है। जैसे समुद्र चारों ओर से खुला रहता है, उसके कोई बाँध या तट नहीं बना होता । इसलिए जल-परिपूर्ण नदियाँ चारों ओर से आकर उसमें प्रविष्ट हो जाती हैं। इसी प्रकार संसारी आत्मारूपी समुद्र के चारों ओर से कर्मरूपी जल आने के छोर (द्वार) खुले हों तो मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषायादि स्रोतों (नालों) से कर्मों का आगमन (आम्रव) निश्चित है। भले ही कोई संसारी जीव चाहे या न चाहे. परन्तु अगर वह कर्मों के आगमन (प्रवेश) के उक्त पाँच द्वारों में से कोई द्वार खुले रखेगा तो कर्म अवश्य ही प्रविष्ट हो जाएँगे। इसीलिए भगवान महावीर ने समस्त संसारी जीवों को सावधान करते हुए कहा है- तीनों लोकों में, सभी दिशाओं में कर्मों के स्रोत (आगमनद्वार) हैं, राग-द्वेषादि या आसक्ति घृणा आदि रूप भावकर्मों को देखो ये भँवरजालरूप हैं। इन्हें सम्यक् प्रकारं से निरीक्षण करके आगमज्ञ साधक इन ( पंचविध ) भावकर्मास्रवों से विरत हो जाए। कर्मानवों के स्रोतों को बंद करने के कतिपय उपाय इन कर्मास्रवों के स्रोतों को बन्द करना ही अकर्मा बनने का उपाय है। इन स्रोतों का बन्द करने का सर्वश्रेष्ठ उपाय है- प्रत्येक क्रिया, प्रवृत्ति या घटना के समय मन-वचन-काया में राग-द्वेषात्मक या आसक्ति-घृणात्मक प्रतिक्रिया न होने दी जाए, उस समय ज्ञाता-द्रष्टा रहा जाए। इसीलिए दशवैकालिकसूत्र में कहा है- प्रत्येक चर्या करते समय यतना ( सावधानी, जागृति, विवेक, अप्रमाद) रखी जाए। प्रत्येक कर्म करते समय कर्तृत्व- भोक्तृत्वभाव भी न लाया जाए। कदाचित् इतनी उच्च भूमिका पर न रहा जाए तो कम-से-कम अशुभ योग ले निवृत्त होकर मात्र शुभ योग में, वह भी प्रशस्त शुभ योग में रहा जाए तो भी व्यवहारदृष्टि से शुभ योग -संवर का लाभ होगा। आत्म- बाह्य पर पदार्थों का, इन्द्रियविषयों का उपभोग करते हुए भी मन में प्रियता-अप्रियता, आसक्ति घृणा या राग-द्वेप का भाव न लाया जाए। अगर व्यक्ति अवांछनीय अशुभ कर्मों, निन्द्य या निरर्थक प्रवृत्तियों, व्यर्थ की विकथाओं समत्ताभाव विघातक मन के दस दोषों से अपना मुख मोड़ ले, मन में विषय-वासनाओं, मोहक सुख-साधनों एवं अन्यान्य पर-पदार्थों की ललक न उठाए, प्राप्त होने या प्राप्ति का चांस होने पर भी उनसे मुख मोड़ ले उनकी ओर पीठ कर ले, उन पर प्रियता-अप्रियता की छाप न लगाए तो कर्मों के आम्रव को रोका जा सकता है। अपने व्यक्तित्व को ढिलमिल बनाकर दृढ़तापूर्वक अशुभ कार्यों का अस्वीकार और आवश्यक शुभ कार्यों के साथ तालमेल बिठाया जाए तो अशुभ कर्मों या बन्धक कर्मों को वापस लौटाया जा सकता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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