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________________ * कर्म - सिद्धान्त: बिंदु में सिंधु * ४३ उत्क्रान्ति के कारण बनते हैं। उक्त आराधक साधक का पुण्य इतना है कि एक देवभव को प्राप्त करके फिर महाविदेह क्षेत्र में मनुष्य जन्म लेकर सिद्ध, बुद्ध, सर्वकर्मों तथा जन्म-मरणादि सर्वदुःखों से मुक्त हो जाता है। इसके विपरीत जब आत्मा पापकर्मों से लिप्त रहता है, तब उसे दुर्गति, दुर्योनि, दुर्बुद्धि, नरक-तिर्यंचगति, नरक-तिर्यंचभव में विविध दुःखों से परिपूर्ण जिन्दगी, अबोधि, अज्ञान, धर्मान्धता, जात्यन्धता, कदाग्रह- दुराग्रह, अतिसार्थ, क्रोधादि कषायों - नोकषायों की तीव्रता, विषयभोगों में अत्यासक्ति आदि संयोग और परिणाम तथा कुसंग आदि दुःखद फलरूप संयोग मिलने संभव हैं। मिध्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग के कारण वह पद-पद पर संवर के बदले आम्रव और सकामनिर्जरा के बदले बन्ध का उपार्जन करता रहता है। वह मिथ्यात्वी होकर भी तप, त्याग, संयम, नियम, अहिंसादि व्रतों का आचरण कर ले, परीषह- उपसर्ग सहन कर ले, और उससे कदाचित् देवलोक भी प्राप्त करके, किन्तु विराधक होने से आध्यात्मिक विकास नहीं कर पाता, फलतः जन्म-मरणादि तथा कर्मों के चक्कर में ही पड़ा रहता है, सर्वकर्मों से मुक्तिरूप मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाता। कारण दुःखद और इसके लिए जैन-कर्मविज्ञान ने पिछले निबन्ध में पाप और पुण्य सुखद फल की मुँह बोलती शास्त्रीय कथाएँ प्रस्तुत की हैं। निरयावलिकादि पाँच शास्त्रों में पतन - उत्थान की कथाएँ इस निबन्ध में निरयावलिकासूत्र में काल-सुकाल आदि दस श्रेणिकपुत्रों का वर्णन है, जिन्हें धर्मात्मा माता-पिता का संयोग मिलने पर भी न तो पुण्योपार्जन की सुबोधि, रुचि, श्रद्धा और दृष्टि प्राप्त हुई, न ही साधु-श्रावकधर्म की आराधना को अपनाया । अतः मिथ्यात्वादि प्रेरित होकर कोणिक द्वारा अन्याययुक्त महाशिलाकण्टक नामक संग्राम में सहयोगी बनकर निर्दोष नर-संहार किया। स्वयं भी इस संग्राम में कालकवलित होकर नरक के मेहमान बने। प्रबलता कल्पातंसिका में पद्म सुपद्म नामक दस अध्ययन में वर्णित कथानायकों ने पुण्यप्रकर्प के उपार्जन से सौधर्मादि देवलोकों की प्राप्ति की । पुष्पिकासूत्र में भी चन्द्र, सूर्य आदि नाम के दस अध्ययन हैं। इन्होंने असंयम का परित्याग करके संयमभावना पुष्पित = विकसित की। फलतः इन सभी ने पुण्योपार्जन के फलस्वरूप मनुष्यलोक से देवलोकरूप सुखद फल की प्राप्ति की । पुष्पचूलिकासूत्र में भी श्रीदेवी, ह्रीदेवी आदि दस देवियों का दस अध्ययनों में वर्णन है; जिन्होंने मनुष्यभव में पुष्पचूला आर्या के पास दीक्षित होकर किसी न किसी रूप में संयम के उत्तरगुणों की विराधिका हुईं। किन्तु मूलगुणों की सुरक्षा के कारण ये सभी सुधर्म देवलोक में विभिन्न नाम की देवियाँ बनीं। वृष्णिदशासूत्र में अन्धकवृष्णि कुलोत्पन्न निपध आदि दस साधकों का वर्णन है, जिन्होंने सर्वविरतिरूप सम्यक् चारित्र का पालन किया और अन्तिम समय में संलेखना - संथारा करके आत्म शुद्धिपूर्वक सर्वार्थसिद्ध नामक अनुत्तरविमान में उत्पन्न हुए। वहाँ से ये सभी महाविदेह क्षेत्र में मनुष्यरूप में जन्म लेकर संयमाराधना करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होंगे। · इन सब में पाप से आत्मा के पतन और पुण्य से उत्थान की रोचक मर्मस्पर्शी कथाएँ हैं। अनुत्तरौपपातिकसूत्र वर्णित कथाओं से आत्मा के सर्वोच्च विकास की प्रेरणा इसके पश्चात् अनुत्तरौपपातिकसूत्र में तीन वर्ग के क्रमशः १०, १३ और १०; यों कुल ३३ अध्ययनों में उन पुण्यशालियों का वर्णन है, जो विविध भोगों में पले हुए थे। पाँचों इन्द्रियों को पर्याप्त विषय-सुखसामग्री उनके पास थी, फिर भी वे भोगों के कीचड़ में नहीं फँसे । उन्होंने कर्मक्षय करने हेतु श्रमणधर्म की दीक्षा ग्रहण सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र तप की साधना की. किन्तु सरागसंयम होने से संचित प्रचुर पुण्यराशि के फलस्वरूप वे आयुष्य पूर्ण करके अनुत्तरविमानवासी देवों में उत्पन्न हुए। वहाँ का आयुष्य पूर्ण कर वे महाविदेह क्षेत्र में मनुष्य जन्म पाकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होंगे। इस प्रकार सम्यग्दृष्टि के प्रचुर पुण्यराशि के फलस्वरूप आत्मा के सर्वोच्च विकास आत्म-स्वरूप में अवस्थान के ज्वलन्त उदाहरण हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only = शुद्ध www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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